भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
‘दुर्गा सप्तशती’ में यह स्पष्ट बतलाया गया है कि भगवती की कृपा से ही सम्यक् तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान की प्रशंसा सर्वत्र है, ज्ञान के होने से अज्ञान, मोहादि मिट जाते हैं। ज्ञान सम्पादन के लिये ही श्रवणादि किये जाते हैं। जप, तप, यज्ञादि सबका परम उपयोग ज्ञान में ही है। परन्तु वह ज्ञान साधारण ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्दादि विषयों का ज्ञान तो प्राणिमात्र को होता है। उलूकादि दिन में अन्धे होते हैं, रात्रि में नहीं; कोकादि रात्रि में अन्धे होते हैं, दिन में नहीं। लता, जलजन्तु आदि दिन-रात समान रूप से अन्धे ही रहते हैं। राक्षस, मार्जार, तुरगादि दिन-रत समान चाक्षुष ज्ञान वाले होते हैं और सबकी अपेक्षा मनुष्यों में अधिक ज्ञान होता है, परन्तु अज्ञान उनमें भी होता है। पशु, पक्षी आदि सभी बहुत ज्ञान वाले होते हैं। व्यवहार ज्ञान मनुष्यों जैसा ही पशु-पक्षियों में भी दिखायी देता हैं। पक्षिगण स्वयं भूखे रहकर भी इतस्ततः से कणों को लाकर अपने बच्चों के मुँह में छोड़ते हैं। मनुष्य भी प्रत्युपकार की आशा से बच्चों के भरण-पोषण में तल्लीन रहते है, यह सब ज्ञान सामान्य ज्ञान है। इनसे संसार के मूलभूत अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती। यही महामाया का प्रभाव है, जिससे सर्वाधिष्ठान, स्वप्रकाश परब्रह्म का बोध नहीं होता। वही उपनिषज्ज्ञाननिष्ठ वशिष्ठ, भरत, विश्वामित्रादिकों के भी चित्त को बलात् मोहित कर देती है। वही चराचर प्रपंच का निर्माण करती है, वही प्रसन्न होकर मुक्ति प्रदान करती है, विद्यारूपा होकर वही मुक्तिप्रदा है, अविद्यारूप से वही संसार बन्ध का हेतु है, वही भगवान विष्णु की यागनिद्रा कहलाती है। जिस समय भगवान शेष पर कल्पान्त में विराजमान थे, उस समय कूर्मपृष्ठ पर जल विलीन होने के कारण पृथ्वी नवनीत के समान कोमल हो गयी। सृष्टिकाल में यह प्राणियों को किस तरह धारण कर सकेगी, यह सोचकर भगवती ने विष्णु को अपनी योगनिद्रा शक्ति से प्रसुप्त करके अपने वामहस्त की कनष्ठिका के नखाग्र भाग से कर्णमल निकालकर उसी से मधु नामक दैत्य को और दक्षिण कर्णस्थ मल से कैटभ को बनाया। उत्पन्न होकर वे दोनों दैत्य पहले कीट के समान ही प्रतीत हुए, पश्चात् महाबलवान हो गये। वरदान देकर देवी के अन्तर्हित होने पर विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल में उन दोनों ने ब्रह्मा को देखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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