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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इस पर श्रीमद्वल्लभाचार्य जी का कथन है- वस्तुतः ऐश्वर्य की सच्ची परकाष्ठा तभी समझी जा सकती है, जब सभी वर्ग के लोग धनी, गरीब, पण्डित, मूर्ख समान भाव से आराधना कर सकें। ये हरिणी केवल प्रेम से अवलोकन करके ही पूजा कर सकती हैं। इनके पास और कुछ पूजा सामग्री ही हीं है और न ये उसे जुटा सकने में समर्थ हैं। श्रीभगवान ने इनकी इसी पूजा को स्वीकार किया और इनका सत्कारात्म्क प्रतिपूजन भी किया। पूज्य को कोई पुष्कल भेंट समर्पण करके पूजा करे यह बात नहीं है, साधारण वस्तु से भी उनकी पूजा हो सकती है, केवल भाव की गाढ़ता चाहिये। भगवान ने स्वयं कहा है -
अर्थातः अभक्त के द्वारा बहुत भेंट की गयी वस्तु मुझे सन्तुष्ट नहीं कर सकती, परन्तु भक्तों के द्वारा प्रेम से, श्रद्धा से समर्पित की गयी थोड़ी-सी अणुभर भी वस्तु प्रेम से, प्रेम की महिमा से मेरे लिये बहुत अधिक हो जाती है। श्रीसुदामा के तन्दुल श्रीश्यामसुन्दर के योग्य थोड़े ही थे, परन्तु श्रीभगवान ने उन्हें जबर्दस्ती छीन लिया। यद्यपि श्रीसुदामा के दुपट्टे के कोने में उनकी ब्राह्मणी ने श्रीकृष्ण के भेंट के लिये ही पडोसिन से माँगकर उन मुट्ठीभर तन्दुल को बाँध दिया, तथापि श्रीकृष्ण का वह महाराज-भाव, वह ऐश्वर्य देखकर उनकी हिम्मत छूट गयी। वे उन तन्दुलों को भेंट करने में समर्थ न हुए। पर भगवान कब चूकने वाले थे, वे तो उस स्वाद के भूखे थे। श्रीरुक्मिणी, श्रीसत्यभामा के द्वारा निर्मित विविध व्यंजनों में उन्हें वह स्वाद नहीं मिला था। उन्होंने छीन-झपटकर वह तन्दुलों की मुट्ठी ली। बल्कि इसी छीना-झपटी में बेचारे ब्राह्मण का दुपट्टा भी फट गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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