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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
जैसे समुद्र अपने ही जल से पूर्ण है। इन्द्र, महेन्द्र देवाधिदेव आकर उन पूर्णतम प्रभु को नमस्कार करना चाहते हैं- उनके चरणों में अपना मस्तक रखना चाहते हैं। परन्तु उन्होंने अपने मस्तकों पर जो मुकुट किरीट धारण किये हैं, वे बहुत कठोर हैं और श्रीप्रभु के चरण बहुत ही कोमल हैं। अतः उनमें गड़ जाने के डर से रत्नमय पादपीठ को (पाँव रखने की चौकी को) ही वे लोग प्रणाम करते हैं। अथवा महत्त्वातिशयवश प्रभु के चरणों तक अपने मस्तक को ले जाने की हिम्मत नहीं होती, अतः पादपीठ पर भी उसे छुआते हैं। अथवा अपनी लघुता बतलाने के लिये पादपीठ पर ही किरीटवेष्टित मस्तक को रखते हैं। किरीटों के पादपीठ पर रखे जाने से खट-खट शब्द होता है, वह मानो किरीटकृत स्तुति है। अर्थात श्रीभगवान के पादस्पर्श को पाकर जड़ चौकी में ऐसी चेतनता, विलक्षण चेतनता आ गयी कि जिसके क्षणिक स्पर्श से किरीट जैसे जड़ पदार्थ भी बोलने लगे, वह बोलना भी सामान्य नहीं, अपितु स्तुति के रूप में, जहाँ गुणगणाढ्यता के साथ चातुर्य की परम अपेक्षा है। यों इन्द्रलोक, रुद्रलोक, ब्रह्मलोक, वैकुण्डलोकादि के देवाधिपति बड़े भय, आदर और हर्ष से स्तुति करते हैं, तथा महामहा मूल्यवान् उपहार लेकर उनके श्रीचरणों में समर्पित करते हैं। कहाँ तो यह उच्चदृष्टि, यह ऐश्वर्य और कहाँ हरिणियों की पूजा? जिन्होंने वेद, वेदान्त नहीं पढ़ा, षट दर्शन का अभ्यास नहीं किया, उपास्यस्वरूप समझना जिनके लिये कठिन है, उन्होंने दर्शन से, केवल दूर के दर्शन से पूजा की और धन्यवाद की पात्र बन गयीं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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