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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीमद्वल्लभाचार्य जी ने इसका यों उपपादन किया-
प्रेम से समर्पित वस्तु हृदय से समर्पित होती है और हृदय से समर्पित वस्तु से गृहीत होती है। “युगपज्ज्ञानानुपपत्तिर्मनसो लिंगम्।” नैयायिक मन को, हृदय को (स्वान्तं हृन्मानसं मनः इत्यमरः) अणु परिमाण-परिमित मानते हैं। अणु से ग्रहण करने पर मुष्टि मान तो बहुत है- एक तन्दुल भी पर्याप्त होगा। प्रेम रहित समर्पण बाह्य समर्पण है। उसे प्रभु महाविराट के अपने बाह्य स्वरूप से ग्रहण करते हैं। आकाश के पेट को कौन भरेगा? अत: “भूर्य्यप्यभक्तोपहृतन्न मे तोषाय कल्पते” कहा है। प्रेम से समर्पित वस्तु के साथ सुस्वादुता की भी कोई अभिसन्धि नहीं है -
फल खाने की वस्तु है, जल भी खा ले। पर क्या पत्र, पुष्प भी खाये जाते हैं? वे तो सघने की वस्तु है। किन्तु भगवान भक्त के सद्भाव में, गाढ भक्ति में मुग्ध हो जाते है, खाने और सूंघने की बात को भूल जाते हैं। भावुक की समर्पित वस्तुएँ प्रेम रसपरिप्लुत होती हैं। वे सब एक मुरब्बा बन जाती हैं। ऐसी थोड़ी भी वस्तु हो जाती है, फीकी भी मीठी हो जाती है। उस समय भक्त भी विभोर हो जाता है, केले की फली को छोड़कर छिलके को निवेदित करने लगता है। परन्तु हरिणियों के पास यह सब कहाँ? वे तो केवल प्रेम भरे नेत्रों से देखना जानती हैं। उनका सर्वस्व यही है। उन्होंने अपने वीक्षण से ग्वाल-वेशधारी छैल-छबीले भगवान का पूजन किया। उस रसिक चूड़ामणि भगवान को हरिणी के नेत्र देखकर हरिणाक्षी-प्रेयसी का स्मरण हो आया। यही हरिणीकृत पूजन हो गया। प्रियतम का स्मरण कराने से बढ़कर और क्या पूजन होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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