भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
परन्तु यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि शक्ति के अस्तित्व में-
इत्यादि सैकड़ों श्रुति-स्मृतियों से गीयमान शक्ति का अपह्नव किस तरह किया जा सकता है? उक्त वचनों मे कार्य-कारणादि सहकारियों के निरासपूर्वक शक्ति का प्रतिपादन है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि ये वचन स्वरूप सहकारिमात्र के प्रतिपादक हैं। शक्ति की स्वरूप मात्रता भी नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ ‘परा अस्य’ इत्यादि पष्ठ्यन्त पद से स्वरूपातिरिक्तता का प्रतिपादन किया गया है। ‘‘अस्य शक्तिर्विविधाः’’,‘‘तास्तु शाक्तयः’’ इत्यादि वचनों से उस शक्ति की अनेकता भी श्रुत हाने से उसे एकरूप ब्रह्म भी कहना ठीक नहीं है। उपक्रम, उपसंहार आदि लिंग से ईश्वरस्वरूप की निश्चायिका होने से उक्त श्रुति-स्मृतियों को अर्थवाद भी नहीं कहा जा सकता। साथ ही नैयायिक आदिकों ने भी इन वचनों को ईश्वर-स्वरूपपरक माना है, अतः उन्हें अर्थवाद बतलाना उचित नहीं है। फिर भी यदि किन्हीं तार्किकम्मन्य को शक्ति के अस्तितव में उक्त आगम वचनों से ही सन्तोष न होकर वे अर्थापत्ति ओर अनुमान की ही अपेक्षा रखतें हों, तो उनको अग्रिम अर्थापित्ति और अनुमान से भी सन्तुष्ट किया जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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