भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
पीछे स्फोटादि कार्य की अन्याथानुपपत्ति से प्रथम अर्थापत्ति को दिखलाया ही जा चुका है। यदि उस सम्बन्ध में यह कहा जाय कि वहाँ पर भी यह कहा गया था कि प्रतिबन्धक के अभाव में सहकृत ही अग्निस्वरूप से कार्य की उत्पत्ति होने से अन्यथा भी उपपत्ति होती है और प्रागभाव प्रध्वंसाभावादि विकल्प से अभाव की अकारणता भी नहीं कही जा सकती; क्योंकि अप्रतिबद्ध ही शक्ति में भी कारणता बन सकने से उसमें भी उक्त प्रसंग समान ही है। परन्तु, उस पर यह कहना हैं कि क्या इस प्रकार का यह एक प्रतिकूल तर्कमात्र है कि यदि प्रतिबन्ध का भाव कारण न हो तो शक्ति भी कारण न होगी अथवा शक्ति कारण है, अतः प्रतिबन्ध का भाव भी कारण है, इस तरह विपर्यय में पर्यवसान होने से अभाव का कारणत्व सिद्ध किसा जा रहा है? पहली बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि केवल तर्क से उपालम्भ नहीं किया जा सकता, उसका विपर्यय में भी पर्यवसान होना चाहिये, अन्यथा वह तर्काभास हो जाता है और ऐसे तर्काभास द्वारा प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया जा सकता। दूसरी बात भी संगत नहीं है, क्योंकि जो शक्ति का अंगीकार नहीं करता, वह उक्त रीति से प्रतिबन्ध का भाव में कारणता दिखलाते हुऐ विपर्यय में पर्यावसान कैसे कर सकता है? तर्क दो प्रकार का होता है- एक स्वपक्ष-साधकानुकूल और दूसरा प्रतिपक्षदूषक पहले में विपर्यय पर्यवसान की अपेक्षा हुआ करती है, अन्यथा साधनानुकूलत्व सिद्ध नहीं होता। दूसरे में उसकी अपेक्षा नहीं होती, वहाँ परमतासिद्ध व्याप्ति से ही परपक्ष की अनिष्ट सिद्धि की जा सकती है। यहाँ भी यही स्थिति मान कर यदि यह कहा जाय कि परासिद्ध शक्ति से परपक्ष का अनिष्टसाधन किया जा रहा है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जो ऐसा मानता है कि प्रमित में अर्थात अधिकरण में प्रमित प्रतियोगिक ही निषेध होता है, न कि अप्रमितप्रतियोगिक, वह- ‘यदि प्रतिबन्ध का भाव कारण न हो, तो शक्ति भी कारण न होगी, इस तरह शक्ति की कारणता का निषेध नहीं कर सकता- क्योंकि शक्ति और उसकी कारणता, दोनों अप्रमित हैं। यदि उन्हें प्रमित कहें, तो स्वरूप से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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