भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यदि कहा जाय कि वहाँ भावजन्यरूप विशेषण के न होने से अर्थान्तरता नहीं है, तो यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भावजन्यरूप विशेषण होने पर भी ईश्वर से सिद्धि साधनता होगी, क्योंकि शक्तिवादी मीमांसक ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। इस तरह यद्यपि सहजशक्ति में न तो अर्थापति और न अनुमान ही प्रमाण हो सकता है, तथापि आधेय शक्ति में ‘व्रीहीन् प्रोक्षति, यूपं तक्षति, अग्नीनादधीत’ इत्यादि आगम प्रमाण होने से तद्बलात् सहजशक्ति की भी सिद्धि हो सकती है। ‘ब्रीहीन् प्रोक्षति’ इत्यादि वाक्यों में ‘व्रीहीन्’ इस द्वितीय श्रुति से- ‘ग्रामं गच्छति’ इत्यादि वाक्यों में जैसे ‘ग्रामम्’ इस द्वितीया श्रुति से ग्राम की कर्मता अवगत होती है, वैसे ही- व्रीहि आदि की कर्मता ज्ञात होने से यह निश्चित होता है कि उन ब्रीह्यादिकों में प्रोक्षणादिजन्य कोई अतिशय है, क्योंकि वहाँ कोई अन्य दृष्ट फल दिखलायी नहीं पड़ता। शक्तिवादी उसी अतिशय को शक्ति मानते हैं। किन्तु संस्कार संज्ञक चेतनगत अदृष्ठ का अचेतन व्रीहि आदि में समवाय नहीं हो सकता, अर्थात आत्मगुण अदृष्ट अनात्मभूत ब्रीह्यादि में नहीं हो सकता। कदाचित् यह कहा जाय कि ‘व्रीहीन्’ इस द्वितीयाश्रुति से एक तो व्रीहि की सस्कार्यता बोधित होती है, दूसरे ‘व्रीहि प्रोक्षण से संस्कृत हुए’ ऐसी प्रसिद्धि भी है, अतः व्रीहिगत संस्कार को चेतनगत मानना विरुद्ध है, परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि घटविषय ज्ञान से उत्पन्न संस्कार जैसे घटविषयक होने से, न कि घटाधार होने से घटसंस्कार कहा जाता है, वैसे यहाँ भी व्रीहिप्रोक्षणादि से उद्भूत सस्कार की भी व्रीहिविषयक प्रोक्षणादि क्रिया से उत्पन्न होने मात्र से तदीयत्व-प्रतीति की उपपप्ति हो सकती है, अतः द्वितीयाश्रुति या प्रसिद्धि व्रीह्यादिगत शक्ति की साधिका न होने से कहना होगा कि शक्ति की कल्पना में कोई भी प्रमाण नहीं है। अत एव लीलावती कार ने भी कहा है कि विवादाध्यासित अग्न्यादि निजरूपमात्र से सम्बद्ध अतीन्द्रियसापेक्ष नहीं है, क्योंकि प्रमाण द्वारा वैसा उपलभ्यमान नहीं होता। प्रमाण से जो जैसा उपलब्ध नहीं होता, वह वैसा नहीं होता, जैसे नील पीतरूप में उपलब्ध न होने से पीत नहीं होता। इससे सिद्ध होता है शक्ति का साधक कोई प्रमाण नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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