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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अब यह लाख चाहे कि इस रंग को मैं निकाल डालूँगा, तो उसका निकालना असम्भव है, और यदि रंग चाहे कि मैं इसमें से निकल जाऊँ तो यह भी असम्भव है। यह है दृष्टान्त। इसे दृष्टान्त में समन्वित कीजिये। भक्त का या प्रेमी का अन्तःकरण लाक्षा है, उसे प्रियतम प्राणधन श्यामसुन्दर की प्रणयाग्नि से तपाओ, खूब तपाओ। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के कूड़े-करकट को निकालकर फेंक दो। फिर उसमें ‘श्याम’ रंग छोड़ो, अब प्रेमी अन्तःकरण और प्रियतम एकमेक हो गया। प्रेमी चाहे कि अपने अन्तःकरण से मैं श्याम को हटा दूं तो वह असमर्थ ही रहेगा। श्यामसुन्दर भी चाहें कि मैं यहाँ से निकल भागूँ, तो उनके लिये भी यह न होगा, चाहे वह कितने भी छली-बली हों। एक भक्त-अन्धे भक्त (सूरदास) इसी कोटि के हो गये हैं। वे यहीं वृन्दावन की कुंज गलियों में अपने प्रियतम प्राणधन श्यामसुन्दर मनमोहन को ढूंढ़ते हुए एक कुएँ में गिर पड़े। वैसे तो भगवान उन्हें नहीं मिल रहे थे। पर अब उनसे न रहा गया, तुरन्त हाथ पकड़कर कुएँ से निकाल लिया। महाभाग्यवान सूरदास कूपपात पीड़ा को भूल गये। वे उस कोमल कर-स्पर्श को पाकर कृत-कृत्य हो गये। उन्होंने निश्चय किया कि इतना सुखकर, साधारणजनों में असुलभ, कोमल-स्पर्श प्रियतम प्राणधन के बिना अन्यत्र उपलब्ध ही नहीं हो सकता। उस मंगलमय ब्रह्मसंस्पर्श से वे रोमांचित हो उठे। उन्होंने उसे जोर से पकड़ लिया। भक्त की वांछा पूरी हुई, दिव्य दृष्टि मिली, दर्शन आदि मिले। भगवान बलात अपना हाथ छुड़ाकर जाने लगे तब सूर ने कहा-“हस्तमुच्छिद्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्। हृदयात् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते।।” इसी का हिन्दी में भी अनुवाद है-
नाथ! हाथ छुड़ाके जाते हो, जाओ, पर आपकी सर्वज्ञता सर्वशक्तिमता की महत्ता तो तब है, जब आप इस दुर्बल अन्धे के हृदय-मन्दिर से निकल भागो, आज मुझे यही देखना है। यह पिघली हुई लाख की ललकार है, रंग के प्रति। भक्त अपने हृदय से निकल जाने को चैलेंज देता है, पर प्रभु लाचार हैं, निकल नहीं सकते। यह प्रभु की लाचारी का दृष्टान्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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