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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीश्यामसुन्दर मुरलीमनोहर ने श्रीव्रजांगनाजन को उनका वृद्धिंगत प्रणय देखकर स्वरसास्वाद कराना चाहा, पर वहाँ पहले प्रकृत काम हटे तब अलौकिक रस की स्थापना हो। बाहु, ऊरु, स्तन आदि प्राकृत लौकिक काम के स्थान हैं, कामदेव उनमें छिपकर बैठा हुआ है। श्री गोपांगनाजन को कामदेव ने अपना दुर्ग बनाया है और वह बाहु आदि स्थानों में बैठकर मानो श्रीकृष्ण से युद्ध करना चाह रहा है। भगवान कृष्ण ने श्रीगोपांगनाओं के अंग दुर्ग देशों से कन्दर्प को निकालकर वहाँ स्वानन्दात्मक रस की स्थापना की। यही “बाहुप्रसार” का तात्पर्य है। जब पहले स्वानन्दात्मक रस की स्थापना हो गयी, तब भगवान अन्तर्धान हो गये-छिप गये। अब श्रीव्रजांगना विप्रयोग के आनन्द का अनुभव करने लगीं। बात यह है कि जीव को अनेक जन्म के कई प्रकार के पहले संस्कार पड़े हैं। उनके कारण वह अपने प्रभु के अनेक जन्म के विप्रयोग को जानता ही नहीं, यदि वह जान जाये तो विप्रयोग का उसे आनन्द मिले। दूसरे, आवश्यकता है परम तल्लीनता की-प्रेम में विभोर हो उठने की, श्याम के रंग में अपने को रंग डालने की। जब तक यह स्थिति नहीं, तब तक आनन्द कैसा? लाक्षा (लाख) कठोर वस्तु है, पर अग्नि के सम्बन्ध को पाकर वह द्रुत कोमल हो जाता है। इसमें विशेषता यह है कि जितना अधिक अग्नि का ताप होगा, उतना ही अधिक द्रवता आयेगी। लाख को खूब तपाया जाये, इतना तपाया जाये कि वह सौ परत (तह) के तनजेब में छानने योग्य हो जाये। फिर वह छान भी लिया जाय, कूड़ा-करकट उसमें से निकाल लिया जाय, गंगाजल की तरह वह स्वच्छ विशुद्ध हो जाये। उसमें हरिद्रा हिंगुल हरा, पीला कोई भी रंग छोड़ा जाये; जो भी छोड़ा जायगा, वह सब उसके अणु-अणु में, अंश-अंश में व्याप्त हो जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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