भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
जैसे अग्नि में होम करने पर भी अग्नि-शक्ति में होम समक्ष जाता है, वैसे ही अग्नि-शक्ति में होम करने से अग्नि में होम समझा जाता है। इसी तरह माया को भगवती कहने पर भी ब्रह्म को भगवती समझा जा सकता है, अतः ब्रह्म की ही उपासना समझनी चाहिये। जो वाक्य माया को मिथ्या प्रतिपादन करते हैं, उनमें तो केवल माया का ही ग्रहण होता है, क्योंकि ब्रह्म का मिथ्यात्व नहीं है, वह तो त्रिकालाबाध्य, सत्स्वरूप अधिष्ठान है। उपास्य मायापदार्थान्तर्गत ब्रह्मांश मोक्षदशा में भी अनुस्यूत रहेगा, अतः मुक्ति में उपास्यस्वरूप का त्याग भी नहीं होगा। ‘अन्तर्यामि ब्राह्मण’ में पृथ्वी से लेकर मायापर्यन्त सभी पदार्थो को चेतन सम्बन्ध से देवता बतलाया गया है। ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’’ इस श्रुति के अनुसार भी सब कुछ ब्रह्म ही है ऐसा कहा गया है। ‘सूतसंहिता’ में कहा है-
अर्थात चिन्मात्र परब्रह्म के आश्रित रहने वाली माया के शक्त्याकार में अनुप्रविष्ट स्वयंप्रभा, निर्विकल्पा, सदाकारा, सदनन्दा, संविद ही शिवाभिन्न शिवस्वरूपा परमा देवी है अथवा भगवती स्वरूपप्रतिपादक वाक्यों में जो माया, शक्ति, कला आदि शब्द हैं, वे सब लक्षण से मायाविशिष्ट, कलाविशिष्ट ब्रह्म के बोधक समझने चाहिये। तथा माया विशिष्ठ कलाविशिष्ट ब्रह्म के बोधक समझने चाहिये। तथा च मायाविशिष्ट ब्रह्म ही ‘भगवती’ शब्द का अर्थ है। वही बात शिव ने कही थी-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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