भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
इत्यादि वचनों से निर्विकार, अनन्त, अच्युत, निरंजन, निर्गुण ब्रह्म ही को भगवती का वास्तविक स्वरूप बतलाया गया है। ‘देवीभागवत’ में भी कहा है कि-
‘‘चितिस्तत्पदलक्ष्यार्था चिदेकरसरूपिणी।’’ अर्थात चिदेकसरूपिणी चिति ही तत्पद की लक्ष्यार्थस्वरूपा है। कहा जा सकता है कि ‘‘फिर तो ब्रह्मास्वरूपताबोधक वचनों से भगवती के मायात्वबोधक वचनों का विरोध अवश्य होगा।’’ परन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि वेदान्त में माया को मिथ्या कहा गया हैं मिथ्यापदार्थ अधिष्ठान में कल्पित होता है। अधिष्ठान सत्ता से अतिरिक्त कल्पित की सत्ता नहीं हुआ करती। माया में अधिष्ठान की ही सत्ता का प्रवेश रहता है, अतः मायास्वरूप की उपासना से भी सत्तास्वरूप ब्रह्म की ही उपासना होगी। इस आशय से मायास्वरूपत्वबोधक वचनों का भी कोई विरोध नहीं है। जैसे ब्रह्म की उपासना में भी केवल ब्रह्म की उपासना नहीं होती, किन्तु शक्ति विशिष्ट ही ब्रह्म की उपासना होती है, क्योंकि ब्रह्म से पृथक होकर शक्ति नहीं रह सकती और केवल ब्रह्म की उपासना हो नहीं सकती, वैसे ही केवल माया को भी उपासना सम्भव नहीं हो सकती। केवल माया की स्थिति ही नही बन सकती, फिर उपासना तो दूर रही। अधिष्ठानभूत ब्रह्म से युक्त होकर ही माया रहती है, अतः भगवती की मायारूपता वर्णन करने पर भी फलतः ब्रह्मरूपता ही सिद्ध होती है।
अर्थात जैसे पादक में उष्णता रहती है, सूर्य में किरण रहती है, चन्द्रमा में चन्द्रिका रहती है, वैसे ही शिव में उसकी सहज शक्ति रहती है। इस तरह विश्व-स्वरूपभूता शक्ति के रूप में भगवती का वर्णन मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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