भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यद्यपि सर्वशक्तिमान होने के कारण वे बिना अवतीर्ण हुए भी धर्म की स्थापना कर सकते थे, तथापि अपनी इस परमप्रेमास्पद वस्तु की रक्षा के लिये उनसे अवतीर्ण हुए बिना नहीं रहा जाता; वस्तुतः प्रेमावेश ऐसा ही होता है। इस विषय में एक आख्यायिका भी प्रसिद्ध है। कहते हैं, एक बार किसी सम्राट ने किसी बुद्धिमान् से कहा कि ‘यदि भगवान सर्वशक्तिमान् हैं तो र्ध और भक्तों की रक्षा के लिये अवतार क्यों लेते हैं; इस कार्य को वे अपने संकल्पमात्र से ही क्यों नही कर डालते; अथवा उनके बहुत से सेवक भी हैं उन्हीं से इसे पूरा क्यों नहीं करा देते?’ इस पर उस बुद्धिमान ने उत्तर देने के लिये एक मास का अवकाश माँगा। सम्राट का एक अति सुन्दर पुत्र था, उसके प्रति सम्राट का अत्यन्त स्नेह था। बुद्धिमान ने ठीक उसी के आकार की एक मोम की मूर्ति बनवायी और एक दिन, जिस समय सम्राट अपने बहुत से सेवक और साथियों के सामने महल के तालाब में स्नान कर रहा था उस समय उस पण्डित ने उस मोम के पुतले को दुलार करते हुए तालाब की ओर ले जाकर उसे जल में गिरा दिया। अपने लाड़ले लाल को तालाब में गिरा जान सम्राट उसकी प्राणरक्षा के लिये तुरन्त तालाब में कूद पड़ा और वहाँ अपने पुत्र की आकृति का एक पुतला मात्र देखकर पण्डित से इस अशिष्टता का कारण पूछा। पण्डित ने कहा-‘महाराज! यह आपके प्रश्न का उत्तर है; जिस प्रकार आपने बहुत से दरबारी और दास-दासियों के रहते हुए भी राजकुमार के मोहवश आपके ध्यान में इस काम के लिये किसी को आज्ञा देने की बात नहीं आयी उसी प्रकार भगवान भी अपने अत्यन्त प्रिय भक्त या धर्म को संकट में पड़ा देखकर स्वयं अवतीर्ण हुए बिना नहीं रह सकते।’ इस प्रकार यह धर्मचन्द्र प्रिय है। इसके सिवा यही भगवत्प्राप्ति का भी असाधारण हेतु है; क्योंकि यह वर्णाश्रम धर्म ही भगवान की आराधना का प्रधान साधन है, इसके सिवा किसी और साधन से उनकी प्रसन्नता नहीं हो सकती-
तथा भगवद्भक्ति ही तत्त्वज्ञान का प्रधान हेतु है; अतः परम्परा से ज्ञान का साधन भी यह धर्मचन्द्र ही है। यह बात सर्वथा सुनिश्चित है कि निगुर्ण परमात्मा की प्राप्ति मन, बुद्धि, प्राण और इन्द्रियों की निश्चलता होने पर ही हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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