नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. भद्रसेन
हमारा कनूँ हमसे दूर तो कभी जाता नहीं। पता नहीं कैसा कुस्वप्न मैं देख रहा था। हमारी गायें स्वस्थ हैं- सुप्रसन्न हैं और हमारे वृन्दावन से सुन्दर स्थान तो संसार में कहीं सम्भव नहीं। इस समय कनूँ श्रान्त है। इसे पल्लव-तल्प पर विश्राम करना चाहिये। पता नहीं क्यों, बड़े लोग चिन्ता, शोक, भय की बात करते हैं। मैंने एक मुनि से सुना- वे लोभ, मोह, काम, क्रोध, अहंकार आदि कितने ही शत्रु गिना रहे थे। बूढ़े गोप सुन रहे थे। ऋषि-मुनि कुछ कहें तो चुपचाप ऋद्धा से सुन लेना चाहिये, यह मैया ने मुझे बतलाया है; किंतु यह सब क्या होते हैं? कैसे होते हैं? कहाँ रहते हैं? मैं कुछ जानता नहीं। मुझे तो यह भी पता नहीं कि इनमें कौन काला है, कौन गोरा। ये कंस के असुरों से भी बलवान भी हों तो चिंता की कोई बात नहीं हैं। हमारा कन्हाई सबको हँसी में ही मार देगा। मुझे केवल दो बातें मुनि महाराज की समझ में आयीं। भय और क्रोध की बात। लेकिन भय लगे तो कृष्ण को पुकार लो। इसे पुकारो तो यह दौड़ा आता है। यह समीप हो- इसका स्मरण भी हो जाय तो सब भय भाग जाते हैं। क्रोध तो बुरा नहीं है। कनूँ मेरी बात नहीं मानता, कभी धूप में भागता है अथवा कँकरीले पथ की ओर जाता है तो मुझे क्रोध आता है। तब तो यही मुझे मनाने लगता है। बहुत आनन्द आता है। मुनि महाराज बड़ों के लिए कहते होंगे। ये लोग बड़े क्यों हो जाते हैं? बालक बने रहें तो इनका क्या बिगड़ता है? बालक को तो खेलने की छुट्टी है। जो मन में आये, खेलो-करो; किंतु एक बात अवश्य है कि कन्हाई को साथ लिये बिना खेलने में बहुत बार विपत्ति आती है। इसे साथ लेकर खेलें तो फिर खेल में बाधा दे, विपत्ति उसके सिर। हमारा कनूँ तो बहुत भोला, बहुत सीधा है। इसे तो कोई कहे- 'मुझे सखा बना ले। तो यह अस्वीकार करता ही नहीं। उस राक्षस व्योम और प्रलम्ब को भी इसने सखा बना लिया था। अब मैं अधिक नहीं सोच सकता। इसका कर-संवाहन करते सोचने लगा तो इसने करवट ले ली है। अब इसकी अलकों के सुमन सम्हाल देने हैं। हमारी गायें समीप ही हैं। सखा भी सब बैठे हैं; पर श्याम तो लो उठ गया। अब यह कुछ करेगा- चपल बहुत है। इस पर दृष्टि रखनी है कि कुश-कण्टक की ओर न चला जाय। |
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