नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
68. जलाधिप वरुण-दिव्य-दर्शन
श्रीनन्दराय को देखते ही मैंने प्रणिपात किया। मैं अवश्य उस अधम भृत्य को एक ही प्रहार में मार देता; परन्तु दयाधाम व्रजराज बीच में आकर वारित करने लगे- 'इसे क्षमा कर दें! इसका कोई अपराध नहीं है।' मैं संकुचित हो गया। मुझसे बहुत बड़े ने जब अपने अपराधी को क्षमा कर दिया, उसके अपराध का विचार भी करने का मुझे अधिकार नहीं रह गया। उन सुर-मुनीन्द्र-प्रणम्य श्रीव्रजराज की पूजा का उपक्रम भी नहीं कर सका- कठिनाई से मैंने अर्ध्य-पाद्य देकर आसन दिया था। अर्चा में लगा ही था कि परात्पर पुरुष उनके पुत्र पहुँच गये। मैंने पिता के साथ उनकी भी शीघ्रता में अत्यल्प पूजा की। मेरा वरुणलोक उनके आगमन से धन्य हो गया। वे सर्वेश्वर मेरे सिंहासन पर बैठ गये, पवित्र हो गया मुझ असुर का वह आसन भी। श्रुति के जो एक मात्र स्तोतव्य, मैं, मेरी वाणी में उनके स्तवन की शक्ति कहाँ। उन निखिलेश्वर की कंगाल वरुण क्या पूजा कर पाता। 'मेरा भृत्य असुर ही तो है, अज्ञानी है। कार्य-अकार्य नहीं समझ पाता। आपके पिता को लाकर अपराध किया उसने और यह मेरा अपराध है। आप मुझे अपनावें या दण्ड दें!' करबद्ध किसी प्रकार मैं यह कह गया। 'आप सर्वज्ञ हैं। मेरे हृदय की भी जानते हैं। पिता को ले जायँ; किंतु मुझ अधम पर भी करुणा करें। मुझे भी अपने पावन पदों की प्रीति प्रदान करें।' 'आप तो मेरे आदरणीय हैं!' वे व्रजसुन्दर हँसे। समझ गया, यह संकेत रमा के सम्बन्ध की ओर है। बहुत ही संकुचित हुआ। पिता के साथ ये परमाराध्य पधारे और मैं कोई उत्तम अर्चा नहीं कर सका। अपने सर्वोत्तम मुक्ताओं की माला, कुछ अलभ्य समुद्रीय पुष्प - जलाधीश इन सर्वेश को दे भी और क्या सकता था। मेरे कभी आर्द्र न होने वाले वस्त्र उन्होंने स्वीकार कर लिये, यह उनकी कृपा। 'कोई अपराध नहीं हुआ। अपनों के व्यवहार में अपराध की भावना नहीं की जाती।' उन्होंने उठते हुए कहा- 'अब अनुमति दें! आप समझते ही हैं कि वहाँ गोपाल वास में लोग कितने आकुल होंगे।' मैं कुछ क्षण भी रुकने का अनुरोध नहीं कर सकता था। अनुगमन किया मैंने और यमुना-जल से बाहर तो अब मुझे उस कलशाधिदैवत रूप में ही सम्पूर्ण तादात्म्य कर लेना था। |
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