नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
68. जलाधिप वरुण-दिव्य-दर्शन
प्रमाद हुआ मेरे भृत्य से। उस मूर्ख को परिस्थिति एवं पात्र के विवेक का कोई ज्ञान नहीं। वैसे उसका यही प्रमाद मेरे सौभाग्य का हेतु बन गया, अतः मैंने उसे पुरस्कृत किया है। यह श्रीकृष्ण की स्वाभाविक विशेषता है कि उनसे सम्बन्धित होकर अपराध भी आराधना बन जाती है। मैं कलशाधिप के रूप में वहाँ उपस्थित देख रहा था- व्रजराज के साथ ही दूसरे गोप स्नान करने आये थे। मुझे सृष्टिकर्त्ता ने जल का अधीश्वर बनाया है। जल में रात्रि का तृतीय प्रहर मेरे अनुचरों के लिये सुरक्षित है। मैंने अपने सेवकों को सामान्य आदेश दे रखा है कि 'जो स्थलीय प्राणी इस आसुरवेला में जल में प्रवेश करें, उन्हें वे अपना आहार बना लिया करें।' मैं अपने उस समय कालिन्दी में आये अपने सेवक को सावधान करने का अवसर नहीं पा सका। केवल तीन पल शेष थे मेरी आसुरी बेला के। अन्य गोप अभी तट पर ही थे। व्रजराज अकस्मात जल में उतर गये और उनकी चीत्कार सुनायी पड़ी- 'कृष्ण!' मेरे असुर जलचर भृत्य ने श्रीनन्दराय को अपने काल में जल में पाया तो उनके पैर पकड़ लिये। डूबते-डूबते व्रजराज ने अपने पुत्र को पुकारा था। स्वाभाविक यह था कि वह जलचर उन्हें पेट में पहुँचा देता; किंतु तत्काल बहुत से गोप यमुना में कूद पड़े। आसुरी बेला समाप्त हो चुकी थी। गोप डुबकियाँ लगाकर कालिन्दी जल को मथित करने लगे थे। मेरा भृत्य भयातुर हो गया। उसने देखा कि सरिता प्रायः सर्वत्र अवरुद्ध हो उठी है। वह किसी ओर भाग नहीं सकता। वह संदिग्ध भी हो गया कि उसने भूल की है। उतने गोप जल में उतरे हैं तो कहीं नन्दराय भी तो ब्राह्ममुहूर्त में ही जल में नहीं उतरे। अपने समय की समाप्ती के पश्चात् यदि उसने किसी को पकड़ा है तो उसे स्वयं प्राणदण्ड प्राप्त हो सकता है सृष्टिकर्त्ता के विधान के अनुसार और वह अपने को गोपों से घिरा पा ही रहा था। अतः उसने अपनी जन्मजात सिद्धि का सहारा लिया। व्रजराज को लेकर स्थूल आधिभौतिक जल से आधिदैवत वरुण लोक में मेरे सामने पहुँच गया। 'नन्दराय डूब गये! ब्रजराज डूब गये!' ऊपर गोपों में अपार कोलाहल प्रारम्भ हो गया। एक ही पुकार सब कण्ठों से- 'कृष्ण! कृष्ण! बचाओ!' प्रायः सभी समर्थ गोप पानी में कूद पड़े थे। सब डुबकियाँ लगा रहे थे; किंतु वहाँ कोई होता तब तो उन्हें मिलता। गोपों का अन्वेषण- डुबकी लगाना, ढूँढ़ना, ऊपर आना अनवरत चल रहा था। उनकी पुकार सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र दौड़े और दौड़ते चले आये। मैंने अपने उस रूप से जो वहाँ अवस्थित था, देखा गोपों का- गोपियों का प्रेम! माता व्रजेश्वरी यह सुनते ही कि 'नन्दराय डूब गये' दौड़ी थीं। गोपियों ने उन्हें पकड़ रखा था; किंतु वे उन्मादिनी हो गयी थीं। उनकी फटी-फटी दृष्टि केवल प्रवाह को देख रही थी। उनमें चेतना आयी जब उनको श्रीकृष्णचन्द्र जल में जाते दीखे। वे चिल्लायीं- 'नीलमणि!' |
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