नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. देवराज इन्द्र-गोविन्दाभिषेक
'अभी आपको और भी कुछ कहना है!' व्रजराजकुमार ने मेरा संकोच देखकर कहा। 'एक प्रार्थना! कुन्तीदेवी के उदर से उत्पन्न मेरा एक पुत्र है। उसका नाम है अर्जुन! आप उसे भी अपना सखा स्वीकार कर लें। वह आपकी आज्ञा में रहेगा।' मैंने बद्धाञ्जलि विनम्र होकर विनय की- 'पुत्र पिता का प्रतिनिधि होता है। मैं समझूँगा कि आपने मेरी सेवा स्वीकार कर ली है।' 'तथास्तु!' पूरी गम्भीरता से कहकर प्रभु हँसे- 'अर्जुन तो मेरा नित्य सखा है। मैं उसकी रक्षा करूँगा।' भगवती सुरभि ने ही संकेत किया कि मैं अब वहाँ से हट जाऊँ। मैं अदृश्य बन गया। गोविन्दाभिषेक की यह पावन तिथि कार्तिक शुक्ल अष्टमी-गोपाष्टमी धन्य है। मेरा हृदय अभी इसी भाव में अभिभूत था कि गोपकुमार हँसते-दौड़ते आये। पीत कछनी, नीलाम्बर-उत्तरीय-कुमार ने आते ही कहा- 'गोविन्द! तूने यहाँ स्नान किया है?' अपने सम्बोधन से स्वयं वह इतना प्रसन्न हुआ कि ताली बजाकर नृत्य करने लगा। उसके साथ सब बालक ताली बजाने, नृत्य करने लगे-
मुझे आश्चर्य हुआ, इस गोपाबालक को मेरे द्वारा अभी अर्पित यह नाम कैसे किसने बतलाया होगा? मैंने तनिक प्रतिक्षा की और उनके परस्पर सम्बोधन से जान लिया कि वह भद्र है। मैंने उसे अकेले पाकर पूछा- 'भद्र! तुम्हारे सखा का गोविन्द नाम किसने रखा है?' |
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