नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
कन्दुक-क्रीड़ा चलने लगी; किंतु बहुत कम समय चली। शीघ्र विवाद प्रारम्भ हो गया। कन्दुक जब तक छाया से बाहर श्रीदाम के या अन्य के करों से जाता रहा, वह उठा कर लाता था और दे देता था उस सखा को, जिसकी कन्दुक उछालने की बारी होती थी; किंतु जब नन्दनन्दन को उठाकर लाना पड़ा- ये कन्दुक दे ही नहीं रहे। श्रीदाम ने आकर कछनी की फेट पकड़ ली है- 'तेरा दाँव है। तुझे दाँव देना पड़ेगा। हमारा दाँव था तो हम सब भी तो भागते फिर रहे थे। मुझे कन्दुक दे। मैं फेकूँगा। तू पकड़ ले सके तो तू फेंकना।' 'नहीं देता दाँव! क्या कर लेगा तू?' अब ये अड़ गये हैं। 'दाँव कैसे नहीं देगा?' श्रीदाम का मुख लाल हो उठा है। वह अब झगड़ा करेगा। कन्दुक छीन लेगा। 'ऐसे नहीं दूँगा!' यह क्या? इन्होंने तो कन्दुक को फेंक दिया हृद में। वह जल पर ऐसे तैरने लगा है, मानों अरुणपद्म खिल गया हो इस नील जल राशि में। भद्र यह विवाद सुलझा देने समीप आ चुका था। वह सम्भवतः स्वयं दाँव दे देता श्याम के स्थान पर और कन्हाई उसके कहने पर कन्दुक अवश्य दे देता; किंतु.....बालकों ने चौंककर कन्दुक की ओर देखा। श्रीदाम की दृष्टि उधर गयी और कर शिथिल हुए। इस अवसर का लाभ उठाकर कृष्णचन्द्र कछनी छुड़ाकर दौड़े और कदम्ब पर चढ़ गये। पर्याप्त ऊपर तक चढ़ते चले आये। श्रीदाम पीछे दौड़ा। कदम्ब पर कुछ ऊपर तक चढ़ आया; किंतु वृक्ष पर बहुत चढ़ने का अभ्यास नहीं। मोटी शाखा पर पहुँचकर बैठ गया। 'आ! कन्दुक लेगा!' अब ये सखा को अँगूठा दिखा रहे हैं। 'तू कब तक ऊपर रहेगा?' श्रीदाम के अधर काँप रहे हैं क्रोध से। नेत्रों में अश्रु भर आये हैं। शाखा पर बैठ गया- 'कभी तो उतरेगा!' बालक सशंक हो गये हैं। किसी को नहीं सूझता कि क्या किया जाय। कन्दुक मैं उठाकर ला सकता हूँ; किंतु इससे यह क्रीड़ा देखने को नहीं मिलेगी। क्या होता है, यह देखना अच्छा है। कन्दुक तो किसी पल दे दिया जा सकता है। 'तू कन्दुक ही तो अपना लेगा!' सखा के नेत्रों में अश्रु सम्भवतः असह्य हो गये इन वात्सल्य-सिन्धु को। अलकें समेट लीं। पटुका कटि में कस लिया और ऊपर चढ़ने लगे। सबसे ऊपर हृद की ओर पहुँची शाखा पर जा पहुँचे। |
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