नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कालिय-दमन
श्रीकृष्णचन्द्र ने आते ही एक बार देखा कालिय-हृद को और स्थिर खड़े हो गये। सर्प-विष तो मेरे स्मरण में निष्प्रभाव हो जाता है, यहाँ तो मेरे स्वामी भी जिनमें अंश बनकर अन्तर्भूत हैं, वे साक्षात खड़े थे। एक ओर से दृष्टि घूम गयी गायों, वृषभों, बछड़ों और गोपकुमारों पर। सब सहसा ऐसे उठ खड़े हुए जैसे निद्रा लेकर उठे हों। शरीरों की विष के व्याप्त होने से जो नीलाभा हुई थी, वह कब दूर हुई। यह मैं भी देखने में समर्थ नहीं हुआ। 'यह तो कालिय-हृद है!' उठते ही सबसे पहिले मधुमंगल को स्मरण हुआ- 'तो हम सब पशुओं के साथ इसका जल पीकर मर गये थे?' 'वह खड़ा है अपना कनूँ!' भद्र ने इधर-उधर देखा और श्याम पर दृष्टि पड़ते ही बोला- 'इसने हम सबको जीवित कर दिया है।' छीके, श्रृंग, वेत्र, पटुके पड़े रहे जहाँ-तहाँ और सब उठकर सहसा दौड़े। पशुओं ने भी दौड़ कर घेर लिया। सब पशुओं को सूँघ लेना था गोपाल को। सब बालकों को अंकमाल देना था; किंतु आज श्रीनन्दनन्दन स्थिर खड़े हृद को देख रहे हैं। अपने सखाओं की ओर भी ध्यान नहीं दिया इन्होंने। मैं इनकी दृष्टि का प्रभाव अनुभव कर रहा हूँ। कालिय-हृद का पूरा पानी इस अमृत दृष्टि के पड़ने से निर्विष, शीतल हो चुका है। उस जल को स्पर्श करके शीतल वायु चलने लगा है। विष से निरन्तर खौलते रहने वाले जल में लहरियाँ उठने लगी हैं। 'तू उधर क्या देखता है?' भद्र ने कन्धे पर कर रखा- 'यह बुरा स्थान है। यहाँ से हम सब वन में चलें। 'यह कालिय-हृद है। भयानक सर्प है इसमें।' मधुमंगल के स्वर में भय था- 'सब शीघ्र यहाँ से भागो!' 'तू देखता नहीं कि कितनी प्रचण्ड धूप है। पुलिन की रेत कितनी संतप्त है!' अब श्यामसुन्दर ने सखा की ओर देखा- 'यहाँ शीतल छाया है। बहुत सुखद वायु है। हम सब यहीं खेलेंगे। दिन ढलेगा तब यहाँ से जायेंगे।' भद्र ने बैठकर सखा के सुकोमल पादतल देखे। आतप में आने से वे अधिक अरुण हो उठे हैं। विशाल समीप आ गया- 'तू मेरे कन्धे पर बैठ जा।' 'श्रीदाम! तू अपना कन्दुक लाया है?' विशाल को उत्तर देना आवश्यक नहीं लगा- 'अपनी गायें बैठने लगी हैं। पशु विश्राम करना चाहते हैं।' |
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