नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. माता रोहिणी-दाऊ का जन्म
मैं देखती थी-केवल मैं देखती थी कि अरुणवर्ण श्वेत श्मश्रु सृष्टिकर्त्ता, त्रिलोचन गंगाधर, सहस्त्राक्ष सुरेन्द्र, शुण्डधर चन्द्रभाल गणपति तथा शत-सहस्त्र अन्य परिचित अपरिचित देवताओं से कक्ष भर गया है और सब साञ्जलि स्तुति करते हुए मुझ पर पुष्पार्पण कर रहे हैं। भगवती पूर्णमासी ने सुनकर अञ्जलि बाँधकर मुझे प्रणाम कर लिया यह कहकर- 'अनन्त जननी! आपके उदर में जो आ गये हैं, वे सुरों के नित्यसेव्य हैं।' ये अद्भुत दृश्य, सुरभि, सुमन, ज्योत्स्ना नन्दगृह में सबके लिए शीघ्र सामान्य हो गये। मेरे शरीर में भी उस विचित्र स्वप्न के पश्चात ही परिवर्तन हो गया। मुझे अपना शरीर पुष्प के समान भारहीन लगने लगा। सभी साग्रह मुझे कुछ भी करने नहीं देते थे; किंतु मुझे लगता था कि मेरे भीतर स्वास्थ्य, शक्ति का अनन्त प्रवाह उमड़ पड़ा है। मुझे श्रान्ति, क्लान्ति कभी हुई भी थी, यह भी विस्मृत हो गया। इतना सब था; किंतु मेरे मन में आह्लाद नहीं था। एक शान्ति थी। नीरव-शान्त बैठे रहना मुझे प्रिय लगता था। सब कहते थे कि मेरे अंग-अंग से कान्ति झर रही है। देवी पूर्णमासी अब प्रतिदिन अधिक समय मेरे समीप ही व्यतीत करने लगी थीं और मधुमंगल तो रात्रि में भी मेरे अंक में सो रहने का अनेक बार आग्रह कर बैठता था। उसे समझाकर ही भगवती आश्रम ले जाती थीं। मुझे तो वह समय भी भली प्रकार स्मरण है, जब दाऊ भूमिष्ठ हुआ। मुझे कोई वेदना नहीं हुई। मैं मूर्च्छिता तो क्या होती, निद्रिता भी नहीं थी। भगवती पूर्णमासी भवन में ही थीं। भाद्रशुक्ल षष्ठी बुधवार का मध्य दिन था।[1]महर्षि शाण्डिल्य समाचार पाकर शीघ्र आ गये। यद्यपि उस समय वर्षा हो रही थी और आज कक्ष में, प्रांगण में-सर्वत्र वे दिव्य पुष्प राशि-राशि झर रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुराने पञ्चांगों में मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को बलदेव-जयन्ती लिखी जाती थी। कल्पभेद से उस तिथि को मध्याह्न में शतभिषा में दाऊ का आविर्भव हुआ। इससे उनका नाक्षत्रिक नाम संकर्षण हैं। सूर्य वश्चिक का, चन्द्रमा कुम्भ का, लग्न वृश्चिक। शेष ग्रह भाद्रपद के समान राशियों में।
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