नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. सुबल-दधि-दान
लड़कियाँ हँसती हैं, चपत दिखाती हैं। इनके वस्त्र कहीं-कहीं फट गये हैं। प्रायः सबके हार टूट गये हैं; किन्तु अपने अंगों पर पड़ा दही भी ये पोंछती नहीं है। ये तो कपियों से भी आज नहीं डरती हैं। कपि कूदकर इनमें-से किसी को सूँघते हैं या दाँत दिखाते हैं, तब केवल चौंककर वह समीप की सखी से लिपट जाती है। मेरे सखा के सम्पूर्ण अंगों पर और वस्त्र पर भी दही पड़ा है। अब यह बैठ गया है मेरे सम्मुख दही खाने। लड़कियाँ खड़ी-खड़ी इसी की ओर एकटक देख रहीं हैं और यह भी तो मुख में दही लेकर उन सबों की ओर ही देखकर बार-बार अँगूठा हिलाता है। 'क्यों रे! वन में कितने बन्दर भरे पड़े हैं? एक साथ सब टूट पड़े थे लड़कियों पर?' मैं रात घर लौटा सखा के समीप से तो मैया ने मिलते ही पूछा- 'पता नहीं लड़कियाँ वन में क्यों गयीं। मार्ग भूल गयी होंगी। तेरे सखा नन्दनन्दन ने बचाया किसी प्रकार बन्दरों को भगाकर इन्हें। तुम सब उस सुकुमार को अकेला वन में छोड़कर चले जाया करते हो? ऐसा नहीं करते बेटा! बहुत भला है वह और अभी बहुत कोमल है। उसे साथ ही रखा करो खेलते समय।' मैया से यह सब ललिता ने कहा है। चन्द्रावली भी यही कह गयी है। दोनों बहुत बुरी हैं। हम सबको ये बन्दर बतलाती हैं। मैं ललिता से पूछूँगा। लेकिन इनमें से किसी ने मैया से मेरे सखा की बुराई नहीं की है। अच्छी हैं सब। इनको अपने आभूषण टूटने, वस्त्र फटने तथा दहेंड़ियाँ फूटने का कुछ कारण तो बतलाना था। अब तो यह प्रतिदिन की बात बन गयी। हम सबको अब दही नहीं ले जाना पड़ता कलेऊ के लिये। इन लड़कियों से घर में बैठा रहा नहीं जा पाता। बहिन अब प्रसन्न रहने लगी है। वह अपनी सहेलियों से सुना है लौटकर हँसती-बोलती रहती है। वह प्रसन्न रहे तो मैया उसे दधि बेचने जाने से मना नहीं करेगी। इन सबों के समीप बहाने बहुत हैं। कभी कोई भल्लूक दीखेगा और कभी केहरी। डरकर भागेंगी तो कँटीली झाड़ियों में गिरने से दहेंड़ियाँ फूटेंगी, वस्त्र फटेंगे, आभूषण टूटेंगे। |
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