नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
इनका श्रृंग पुकार रहा है! जगा रहा है! यही तो सदा अज्ञान-निद्रा में निमग्न प्राणी को पुकार कर जगाते हैं। ये न पुकारें तो क्या अनन्तकाल से इनसे पराङ्मुख प्राणी इनकी ओर उन्मुख होकर इनका अनुगमन कर पाता है। ये श्रृंग बजाकर जगा रहे हैं! पुकार रहे हैं सदा-सदा से सबको। आओ और इनके साथ आनन्द-क्रीड़ा करो! सभी बालकों ने अपनी माताओं को सायंकाल ही कह दिया था कि वे कलेऊ साथ ले जायेंगे। सब घरों में रात में ही विविध व्यञ्जन बन गये। आज बालकों ने श्रृंग, वेत्र, रज्जु के साथ रंग-बिरंगे छीके लटकाये हैं कन्धों पर। सब शीघ्रतापूर्वक घरों से निकले। सबके सहस्र-सहस्र अनेक रंगों के बछड़े कूदते-फुदकते पथ पर आ गये और दौड़े नन्द-भवन की ओर। 'लाला रे! सब मिलकर कलेऊ करना।' मैया ने छीका विशाल को सम्हलाया- 'आज दाऊ नहीं जा रहा, तू अपने इस छोटे भाई को सम्हालना। इसे वृक्ष पर मत चढ़ने देना। धूप में सब मत खेलना। कहीं पानी में मत उतरना और वन के फल मत खाना।' मैया को पता नहीं कितनी बातें कहनी हैं। कितनी ही सूचनाएँ देनी हैं। सभी सखाओं से श्याम को सम्हालने का अनुरोध करना है; किंतु बालकों को तो वन में भागने की शीघ्रता है। कोई ध्यान ही नहीं देता मैया की सूचनाओं पर। सब 'हाँ हूँ' कर देते हैं। 'मैं इसे साथ ही रखूँगा!' भद्र आश्वासन देता है; किंतु मैया बालकों के आश्वासन पर भरोसा कहाँ कर पाती है। 'बछडे़ कहीं भाग भी जायँ तो वन में मत भटकना। वे अपने आप आ जायँगे या गोप उन्हें लावेंगे। तुम सब बछड़ों की चिन्ता मत करना। परस्पर झगड़ना मत!' बाबा को भी प्रतिदिन बहुत-सी बातें बालकों को बतलानी रहती हैं और बीच-बीच में तो गोपों को भेजना ही है कि बालकों को देख आवें। स्वयं अपना मन भी बाबा का कहाँ मानता है। बालकों को संकोच न हो, इतनी दूर से देख आते हैं कई बार। सबको समीप ही रहने को सचेत भी कर आते हैं। |
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