नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. देवी दुर्गा-व्योम-वध
आते समय गिरिराज में एक गम्भीर गुफा यह देख आया है। उसके द्वार को पूर्णत: अवरुद्ध कर सके ऐसी भारी शिला समीप रख आया है। अपनी योजना पहिले ही बना चुका है। लेकिन मेरे इन लीलामय अग्रज की योजना क्या है? 'हम सब खेलेंगे, तुम बतलाओ!' कृष्णचन्द्र प्रसन्न हैं। नवीन सखाओं को प्रोत्साहित कर रहे हैं। 'सीधा-सा खेल है।' व्योम ने बतलाया- 'दस चोर, दस रक्षक और शेष सब भेडें। भेड़ बने मित्र हाथ पैरों से चलेंगे। सब सटे रहेंगे, पर चारों ओर मुख किये इधर-उधर थोड़ा चलते रहेंगे। रक्षक लकुट लिये उनको चरावेंगे, रक्षा करेंगे। चोर कुञ्जों में छिपे रहेंगे और अचानक आकर जिस भेड़ को छुएँगे, वह उनके साथ भागती जाय। उस बालक को चोर जहाँ बैठा देंगे, वह तब तक बैठा रहे, जब तक रक्षक ढूँढ़कर उसका स्पर्श न कर दें। फिर आकर भेड़ों में वह मिल जायगा। यदि चोर सब भेड़ें चुरा ले जा सकें तो वे जीतेंगे और यदि सब चुरायी भेडे़ं ढूँढ़ लें तो वे जीतेंगे। 'कौन रक्षक बनेंगे कौन चोर?' भद्र ने पूछ लिया। 'मैं चोर बनता हूँ और इनको रक्षक बना दो।' व्योम ने कहा- 'मेरे साथ नौ और आ जाओ जिसका जी करे और इनको अपने साथी छाँट लेने दो। व्योम को पञ्च महाभूत-पञ्च तन्मात्रा की दस संख्या स्वभाव से स्मरण आ गयी थी। वह अपने को अब प्रधान दिखलाने लगा था प्रोत्साहन प्राप्त करके। दल बनने में देर नहीं लगी। लकुट लेकर रक्षक बने श्रीकृष्ण- ये गोपाल सदा से ही तो पशुप्राय प्राणियों के यही रक्षक हैं। व्योम बहुत सावधानी रख रहा था। उसने अपने दल के साथियों को भी अपने से पृथक विभिन्न दिशाओं में नियुक्त कर दिया। वह भेड़ बने बालकों को स्पर्श करके अपने साथ ले जाता था और तनिक आड़ मिलते ही माया मोहित करके उस गुफा में रख आता था। गुफा-द्वार पर-से बार-बार शिला हटाने तथा फिर द्वार बन्दकर देने में उसे कोई श्रम नहीं होना था। |
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