नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. देवी दुर्गा-व्योम-वध
व्योम गोप बालक बन गया था। इतना समझ गया था कि श्रीकृष्ण के सखाओं को कोई शब्द जाल उन दामोदर से दूर नहीं कर सकता, अत: स्वयं समीप पहुँच गया। श्रीकृष्ण ने कब किसी को अस्वीकार किया है। कोई भी, कैसा भी हो, किसी भी प्रकार आवे, श्यामसुन्दर को अस्वीकार करना नहीं आता। व्योम ने जब गोप बालक का वेश बना लिया, बिना पूछे भी वह इन मधुसूदन की मित्र-मण्डली में मिल जाता तो कोई मना नहीं करता। उसने तो संकोच का पूरा अभिनय करते समीप आकर कहा- 'दूर के गाँव से तुम्हारी मित्रता पाने आया हूँ। मुझे भी अपने साथ खेलने दोगे?' 'हाँ-हाँ! आओ!' कृष्णचन्द्र के दीर्घ दृगों में जो किञ्चित व्यंग झलक गया, उसे केवल मैं लक्षित कर सकती थी। मुझे इनके भ्रूभंग मसझने का अनादिकाल से अभ्यास है। व्योम प्रसन्न हो सकता था मन में। उसकी मुठ्ठियाँ एक बार कसकर खुल गयीं। मुझे हँसी आयी- 'यह मूर्ख समझता है कि इसकी योजना कोई जानता ही नहीं।' सहज सरल गोप बालकों को यह हृष्ट-पुष्ट सखा अच्छा लगा। श्याम के सभी जनों का स्वभाव बन जाता है कि जो समीप आवे, उसे स्नेह से अपना लेते हैं। ये तो सब शिशु हैं, इन्हें अपने-पराये का भेद पता ही नहीं। 'क्या खेलोगे तुम?' नवीन सखा को सम्मान देने के लिए नन्दनन्दन ने पूछा। अच्छा है कि आज इनके अग्रज नहीं आये हैं वत्स-चारण के लिए। अपने जन्म-नक्षत्र के कारण उन्हें रुकना पड़ा है, अन्यथा व्योम का वे क्या बनाते- कहना कठिन है। मैं भी उनके स्वभाव के सम्बन्ध में कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकी। वे शान्त रहें, सह लें तो बडे़-से-बडे़ अपराधों पर दृष्टि न उठावें और न सहें तो अनुज के प्रति किञ्चित अवमानना असह्य हो जाये उन्हें। वे जब आवेश में आते हैं, उनके असीम तेज को सहने में कौन समर्थ है? उस समय उनके सम्मुख जाने का साहस मैं अपने में नहीं पाती, यद्यपि अनुजा होने के कारण मैं नित्य उनकी अनुग्रह-भाजना हूँ। |
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