नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. रंगदेवी-तुलसी-पूजन
'तू क्या प्रार्थना करती है तुलसी से?' मैंने परसों इससे पूछ लिया। 'सखि! तू जानती है कि मुझमें कुछ नहीं है।' यह सिसकती बोली- 'मुझसे अधिक ही सुन्दर हैं बरसाने की सभी बालिकाएँ और संसार में जाने कितनी होंगी। मुझे कुछ भी तो नहीं आता। कोई कला, कोई गुण नहीं मुझमें।' 'तो?' मैं इसका मुख देखती रह गयी। इसमें किसी के प्रति ईर्ष्या जगे, किसी से प्रतिस्पर्धा करना चाहे यह मेरी सखी, मैं स्वप्न में भी सोच नहीं सकती। इसके मन में स्वयं किसी के सौन्दर्य, सद्गुण, विद्या को देखकर तो सर्वदा उल्लास ही आता है और संसार में ऐसी कौन-सी रूपवती, गुणवती निकल आयी कि इसके सम्मुख ठसक दिखलाने का साहस करे और उससे क्षुब्ध होकर यह तपोलीना बने। 'तूने तो देखा है भैया सुबल के उन नीलसुन्दर सखा को वन से वत्स चारण करके लौटते समय!' मेरी प्राणसमा सखी रुदन करने लगी- 'उनके सौन्दर्य की संसार में कहीं छाया भी है? वे जब मुझे नन्दीश्वरपुर में प्रथम ही दिन मिले थे, मैं समझ गयी थी कि केवल विशुद्ध प्रीति से उनका परम सुन्दर शरीर बना है। सद्गुणों के वे एकमात्र धाम और उनकी कला, विद्या- 'तूने भी तो उनकी वंशी, ध्वनि सुनी है। अब सुबल भैया उनके पराक्रम सुनाता है। उन्होंने दैत्य को जो बछड़ा बनकर आया था, खेल-खेल में घुमाकर मार दिया। गिरि शिखर से भी बहुत विशाल बक को चीर फेंका।' 'लेकिन तू क्यों तपस्या करने लगी है?' मैं नहीं रोकती तो मेरी सखी पूरी रात्रि ही उन नन्दनन्दन का वर्णन करती रहती- 'यह मैं भली प्रकार जानती हूँ। वह इधर जब पूजा से अवकाश पाती है तो हम सबसे उस मयूर-मुकुटी के सम्बन्ध में ही पूछती है, अथवा उसी का वर्णन सुनाने बैठ जाती है। मैंने हँसकर कहा- 'अपने बाबा की ब्रजराज से बाल मैत्री है। वे व्रजराज कुमार को जामाता बनाना चाहेंगे तो नन्दीश्वरपुर के स्वामी अस्वीकार नहीं करेंगे। बाबा से तू नहीं कह सकेगी तो मैं कह देती हूँ। बाबा क्या मेरी कोई बात टालते हैं? इसमें इतनी पूजा की आवश्यकता क्या है?' |
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