नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
सुन लिया मैंने कंस दिग्विजय से लौटा तो दूसरे पराजितों के समान बक और अघ को भी पराजित करके मथुरा ले आया।[1] पूतना को उसने बहिन बना लिया था, अत: अघ और बक को अनुचर के स्थान पर भाई ही मानने लगा था। पूतना गोकुल आकर देवी यशोदा के स्तनन्धय को दुग्धपान कराने की कुचेष्टा में अपनी आसुरता से परित्राण पा गयी। मुझे तभी आशा हो गयी कि पूतना का अनुज बक भी अपनी बहिन का पदानुगामी अवश्य एक दिन होगा; किंतु वह गोकुल आने का साहस नहीं कर सका। गोकुल त्यागकर ब्रजपति गोपों के साथ वृन्दावन आ गये, तब महर्षि शाण्डिल्य के साथ मैं भी आ गया। मैं कब का उस कदर्य बक को विस्मृत हो चुका था। यहाँ व्रज में आकर व्यक्ति अपने शरीर को- साधना को ही स्मरण नहीं रख पाता तो किसी भूतकालीन शाप की स्मृति कैसे रखी जा सकती है। यहाँ आकर तो स्नान, सन्ध्या, हवन भी औपचारिक हो गये हैं। अब तो एक ही साधना बन गयी है- समित, कुश, पुष्प, फल, बिल्वदल आदि कुछ भी संग्रह करने के बहाने प्रात:कृत्य झटपट समाप्त करके वन में जाओ और गोप-बालकों के साथ वत्स-चारण को पधारे श्रीनन्दनन्दन इतनी दूर से देखते रहो, जिसमें संकोच न हो। श्रीकृष्णचन्द्र और उनके सब साथी बहुत श्रद्धालु हैं, संकोची हैं। देखते ही दौडे़ आवेंगे। भूमि में लेटकर प्रणिपात करेंगे। वहीं अपने उत्तरीय बिछा देंगे बैठने को और उन निखिलेश्वर के उत्तरीय बनाने का साहस कम-से-कम मुझमें तो नहीं है। मैं बहुत दूर छिपा-छिपा अग्रज के साथ उन सौन्दर्येक-धाम का दर्शन करता रहूँ, उनकी चारु चपल क्रीड़ा देखता रहूँ- इतना बड़ा सौभाग्य मिला मुझे मेरे दयासिन्धु गुरु भगवान कपिल की कृपा से। धृष्टता करके यह सुअवसर मैं कैसे खो सकता हूँ। ध्यान करता हूँ- यह कहना ठीक नहीं है। ध्यान होता है, समाधि रात्रि भर स्वत: मुझे अपने में लीन रखती है। इन व्रजेन्द्रनन्दन को देखकर क्या फिर ध्यान- समाधि करना पड़ता है? ये बछड़ों को लेकर सखाओं के साथ नन्दभवन चल जाते हैं तो हृदय में इनकी क्रीड़ा अविश्राम चलती रहती है। इन श्रीनन्दनन्दन की क्रीड़ा क्षण-क्षण में नव-नवानन्द का सृजन करती, अन्त:करण के अपने अतर्क्य सुख में स्नान करती रहती है। परम धन्य हैं ये गोपकुमार। श्रीकृष्णचन्द्र तनिक दूर गये और ये दौड़े- 'मैं पहिले- मैं पहिले स्पर्श करूँगा!' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'भगवान वासुदेव' में यह कथा पूरी आयी है।
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