नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
बक को आश्वासन देकर मैं भगवान कपिल के समीप पहुँचा। शिष्य की त्रुटियों को सुधारने का, आश्रित के पाप को पुण्य बना देने का दायित्व होने के कारण ही तो गुरुदेव गौरवमय हैं। मेरे अनन्त करुणावर्णव गुरु ने मुझे कोई उपालम्भ नहीं दिया, उन्होंने कहा- 'वत्स! मेरा यह अवतार तो तत्त्व-प्रसंख्यान के लिए है, अधिकारी मुमुक्ष ही मुझसे मोक्ष का मार्ग पाते हैं। असुरोद्धार की क्रीड़ा अखिलेश्वर द्वापरान्त में ब्रज में आकर करेंगे। तुम्हारा शाप वरदान बनाने में समर्थ वे सर्वज्ञ अवश्य इसे अपना लेंगे। यह आश्वासन तुम अभी दे सकते हो इस असुर को।' मैंने बक बने उत्कल को आश्वासन दे दिया, वह वहाँ से उसी समय उड़ गया। सृष्टि के नियमानुसार वह आसुर वक शरीर में उत्पन्न हुआ पूतना का छोटा भाई और अघ के अग्रज रूप में बक अघ का अग्रज ही तो होता है। श्वेतकाय-मूर्त्तिमान सात्त्विकता दीखे ऐसा शरीर, एक पैर पर स्थिर, शान्त, जल में ऐसा खड़ा रहे जैसे महान ध्यानस्थ योगी; किंतु ध्यान मत्स्य पर- मछली आयी और टप पकड़ निगल ली। अघ का अग्रज यह दम्भ- अत्यन्त सात्त्विक वेश, एकाग्रता, ध्यान, तप का उत्कट दिखावा और दृष्टि भोग पर, छल से भोग प्राप्त करने पर। इतना क्रूर-कुटिल हृदय कि किसी की हत्या में, किसी को कुछ भी कर देने में किञ्चित भी हिचक नहीं। केवल अपने स्वार्थ, अपने सुख पर दृष्टि। यह दम्भ पाप का बड़ा भाई ही तो है। कोई भी साधन इसका समुद्धार करने में समर्थ कहाँ है। साधन को ही स्वार्थ के लिए प्रयुक्त किया गया तो वे पतन के हेतु हो गये, अब उनसे उद्धार का क्या सम्बन्ध। इस उत्कल का उद्धार तो निखिलकलैक-धाम, षोडश-कला-सम्पूर्ण श्रीकृष्ण स्वयं करें अपने करों से तभी सम्भव है। मैं अपने ही अपकृत्य से व्यथित था। शाप देकर जो अनुताप मुझे हुआ, उसकी पीड़ा मुझे अब अशान्त बनाये थी। महर्षि कपिल ने आदेश दिया- 'वत्स! तुम व्रज में जाकर महर्षि शाण्डिल्य के समीप कुछ दिन निवास करो। तुम्हारे द्वारा प्रशप्त उत्कल का उद्धार तो होगा ही, तुम भी परम पुरुष का प्रेम प्राप्त करके पूर्ण हो सकोगे।' |
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