नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. ब्रह्मर्षि वशिष्ठ-वत्सोद्धार
नन्दिनी क्षीरोदधि-मन्थन से आविर्भूत कामधेनु की आत्मज है और वे कामधेनु गोलोक की पूज्या सुरभि अंशोद्भवा हैं। अत: नन्दिनी के शाप से समुद्धार श्रीगोलोक बिहारी गोपाल करें, दैत्य को उनके श्रीचरण प्राप्त हों, यही समुचित संगति थी। सृष्टि में निर्दोष कुछ नहीं होता। नन्दिनी के शाप में भी एक बड़ा अनर्थ अन्तर्हित था। गोवत्स ही बढ़कर वृषभ होता है। वृषभ साक्षाद्धर्म है। वत्स है विश्वास। विश्वास को ही धर्म बनना है बढ़कर। इस विश्वास में आसुरभाव-दैत्य को प्रवेश दे दिया नन्दिनी ने। आसुरभावयुक्त विश्वास विनास ही तो करेगा विश्व में। इस विश्वास का-आसुर-विश्वास का विनाश श्रीकृष्ण स्वयं करें तो हो। आकर्षण की सत्ता तो वहीं हैं। वही असुरता में विश्वास को अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ हैं। नन्दिनी के शाप से बने बछड़े का उद्धार उन गोपाल को ही करना चाहिये। यह सब सोचकर मैंने कह दिया- 'वत्स! प्रतीक्षा करो कुछ दिन। द्वापरान्त में गोलोकेश्वर गोपाल व्रज में आकर तुम्हारा उद्धार कर देंगे।' मेरे आशीर्वाद का सम्मान तो मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम को ही रखना है। जानता हूँ, वही व्रज में नन्दनन्दन बनकर आया है। उससे मुझे अनुरोध भी कहाँ करना है। वह मेरा आदेश माँगेगा; किंतु वहाँ जाने में मुझे बड़ी बाधा है। मुझे देखते ही वह वही साकेत का संकोचीनाथ बन जायगा। उसके उन्मुक्त बिहार में अवरोध बनने मेरा जाना उचित नहीं है। मेरे भाई देवर्षि नारद को व्यसन है घूमते रहने का। आजकल व्रज उनके आकर्षण का केन्द्र बन गया है। अत: मुझे वहाँ का सम्वाद प्रतिदिन उनके द्वारा प्राप्त हो जाता है। 'महर्षि! व्रजराकुमार का दर्शन करते आप! वह अयोध्या में हो या वृन्दावन, दूसरा नहीं हुआ करता। 'आज देवर्षि ने सुनाया- 'वन में देखने योग्य शोभा थी गोपों के बालकों की। आप अब भी गद्गद हो जाते हैं यह कहते कि खेल में भी श्रीराम साखओं को विजयी बनाते थे और स्वयं हार जाते थे। आज मैं यह प्रत्यक्ष देख आया हूँ। मल्ल-युद्ध में श्याम सबसे सुकुमार हैं। आपके इस सर्वेश को सब गोपकुमार पटकनी दे देते हैं। बड़े उत्साह से उठकर फिर ताल देता है- 'आ अबकी तुझे अवश्य पटक दूँगा!' |
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