नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणु-वादन
सृष्टिकर्त्ता थे अपने सरोजासन पर। देवर्षि भी थे और सब सिद्ध, महर्षिगण भी थे। सनकादिकुमार, मरीचि, अत्रि, अंगरादि प्रजापति- किसी कारण जनलोक, तपोलोक, महर्लोक के सब महाषुरुष और संयमनी के स्वामी यमराज भी उपस्थित मिले; किंतु उसी अवस्था में जो मैं स्वर्ग में, धरा पर, कैलाश में देख आया था। 'तुम्बरू, तुम? अच्छे आये इस समय!' ब्रह्मलोक मैं आधे पल ही रुका कि सृष्टिकर्त्ता सावधान हुए। धरा पर तो यह समय बहुत होता। वंशी का स्वर विरमित हो चुका था। उज्ज्वल श्मश्रु ब्रह्माजी ने अपने आठों नेत्र पोंछे और मुझसे पूछने लगे- 'तुम तो संगीत के परमाचार्य हो। यह जो अभी स्वर गूँज रहा था, यह कौन-सा राग था? मेरी सृष्टि में इतना अधिक परिवर्तन पल-भर में करने वाला यह कौन-सा तत्त्व है, मैं अपनी बुद्धि से सोच नहीं पाता हूँ। वृद्ध हो गया, लगता है स्मृति साथ नहीं दे रही है।' मैं देवर्षि के पदों पर गिर पड़ा। उन दयामय ने उठाकर हृदय से लगा लिया। उनके संकेत पर सनत्कुमारजी ने समझाया- 'संगीताचार्य! आप व्रज में शिक्षक बनने का अभिमान लेकर गये थे। आप जानते ही हैं कि अहंकार की शिला से कठिन सृष्टि में कुछ नहीं है। श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि कर्ण-कुहरों से अंतर में उतरे, इसके लिए अहंकार का कम-से-कम सुषुप्त हो जाना तो आवश्यक ही है।' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज