नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणु-वादन
'सुबल श्रृंग बजावेगा। वंशी तू बजा!' भद्र का बाधा देना मुझे अच्छा नहीं लगा। मेरा पाठ अपूर्ण रह गया; किंतु भगवती शारदा का स्वभाव ही है कि उनको चौर्य नहीं रुचता। मैं अव्यक्त रहकर, बिना विनम्र बने ही सीख लूँ- यह वे वरदा नहीं स्वीकार करेंगी। 'तू बजा वंशी! आ, तुझे सिखलता हूँ।' आज इनको अपनी प्रशिक्षण-कला प्रदर्शित ही करना है क्या? 'मुझे यह लड़कियों-जैसा पीं-पीं पसन्द नहीं।' भद्र ने श्रृंग लगाया अधर से और वन गूँजने लगा।' सायंकाल देखना, मैं बाबा का बड़ा शंख बजाऊँगा।' 'शंख सायंकाल बजाना। अभी वंशी बजा!' श्रीनन्दनन्दन ने सखा के करों में अपनी वंशी दे दी श्रृंग छीनकर। भद्र तो सब छिद्रों को अँगुलियों से रुद्ध करके फूँकने लगा है। ऐसे कहीं स्वर निकलता है। सब अँगुलियाँ झल्लाकर हटा लीं और फूँक मारकर सीटी बजा दी इसने वंशी से। मैं व्यक्त हो जाऊँ? इस बालक को बतला दूँ? लेकिन तब वञ्चित हो जाऊँगा, अभी ये सखा को शिक्षित करेंगे तो मैं इनकी प्रशिक्षण-पद्धति सीख सकता हूँ। ये तो पेट पकड़कर हँस रहे हैं। 'तू बजा अब?' भद्र ने हाथ पकड़ा और वंशी करों में दे दी- 'यहाँ इस तमाल-मूल में खड़ा हो और बजा!' यह भी अच्छा है। पहिले इनका वेणु-वादन सुन लेना चाहिये मुझे। बिना सुने शिक्षा देने की सेवा मैं कैसे कर सकता हूँ। इन्होंने वंशी ली और सब बालक दौड़कर समीप आ गये। कुछ खड़े हैं, कुछ भूमि पर बैठ गये, कुछ अधलेटे हो रहे हैं, हरित भूमि पर। सघन नील तमाल मूल से सटे खड़े हो गये श्रीनन्दनन्दन ललित त्रिभंगि से। घुँघराली काली अलकों में मयूर-पिच्छ लगे हैं। अनेक रंगों के पुष्प, किसलय सखाओं ने सजाये हैं। माता के करों से सजायी मुक्तामाल है। वाम स्कन्ध की ओर झुका यह मस्तक। विशाल भाल पर गोरोचन की खौर के मध्य कुंकुम-तिलक, पतली धनुषाकार काली भौंहों के नीचे विशाल अर्धमुकुल कमल-लोचन अञ्जन-रञ्जित, कपोलों पर अरुण-पीत बिन्दुओं से बना मण्डल, कर्णों पर लगे पीत कर्णिकार पुष्प, वाम स्कन्ध पर टिका कपोल और कर्णकुण्डल, रक्तिम रेखा जैसे पतले अधर, नन्हा-सा मुख और उससे सटी स्वर्ण मुरलिका रत्नजटित। मुरलिका के छिद्रों पर पतली कुसुम-कलिका-सी लाल-लाल अँगुलियाँ और उनके नखों की अमृत-धवल ज्योत्स्ना। |
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