नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. माधुरी दासी-पनघट
बालकों का तो खेल हो गया; किंतु मैं चिंता के मारे अधमरी हो गयी। बरसाने से कोई उलाहना आवेगा मेरी स्वामिनी के समीप तो वे श्याम को क्षमा कर पावेंगी? मैं कुछ कह भी नहीं सकती। केवल प्रार्थना ही तो कर सकती हूँ भगवान से कि कोई उलाहना न आवे। कहाँ का उलाहना! बरसाने से तो मेरे नीलमणि तथा इसके सखाओं के लिए उपहार आये हैं। अन्तत: कीर्त्तिदा-नन्दिनी बालिका है तो क्या हुआ, राजनन्दिनी हैं। उनकी सहेलियाँ उनकी ही बात तो मानती होंगी। क्या सुन्दर हृदय पाया है उस बालिका ने! सबने वहाँ जाकर बहाना बना दिया। बरसाने से तो बहुत-बहुत कृतज्ञता-पूर्वक कहलाया गया है- 'बालिकाएँ मानती नहीं। ये अपनी पूजा के लिए स्वयं जल लेने चली गयीं। किसी बड़े के साथ जाने से सबों को संकोच होता। पता नहीं कहाँ का कोई उत्पाती बन्दर इन पर झपट पड़ा था। ये सब बहुत भीरु है, बन्दर का दोष नहीं होगा। ये उसे देखकर ही भागी होंगी। नीलमणि दौड़ा आया सखाओं के साथ। बहुत सदय है वह। उसने इन्हें कपि को भगाकर आश्वासन दिया। जो गिर गयीं थीं, उन्हें उठाया। लताओं में उलझे इनके वस्त्र, वेणियाँ सुलझा दीं। हमारी बालिकाओं को बचाया व्रज के युवराज ने!' मैं सुनकर वृषभानु-नन्दिनी के शील पर मुग्ध हो गयी। उन्हें आशीर्वाद ही तो दे सकती हूँ; किंतु अब उनकी सहेलियों को इसी घाट पर जल भरने की हठ हो गयी है और ये बालक तो हठी हैं ही। नीलसुन्दर इनसे अब ऐसे ही उलझता रहेगा। |
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