नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. माधुरी दासी-पनघट
कल बरसाने की कुमारियाँ आयीं छोटी कलशियाँ लिये जल भरने। वहाँ के अधीश्वर की कुमारी और उनकी सखियाँ- कोई पूजा होगी वहाँ अन्यथा क्या ये कुमारियाँ स्वयं जल भरने आतीं। इतनी दूर इसी घाट से जल लेने का भी कोई कारण ही होगा। किसी विशेष पूजा में पानी भी तो विशेष स्थान का ही लगता है। किसी ऐसे ही कारण से कोई बड़ी-बूढ़ी साथ भी नहीं आयी। 'तू मेरी बहिन की कलशी का क्या करेगा?' सुबल ने न छेड़ा होता तो श्याम को उत्पात की सूझती नहीं; किंतु कोई चुनौती दे दे तो यह मानने वाला कहाँ है। यह सखाओं के कान में कुछ कहने लग गया था। 'तुम सब हमारे घाट पर क्यों आयीं? हमारा कर देकर तब जल ले जाओ!' हे भगवान! इस नन्हे नटखट को कर की बात कहाँ से सूझी? 'यमुना पर घाट भी किसी का होता है?' किसी बालिका का ही स्वर है। मैं कहाँ बरसाने की इन बालिकाओं को पहिचानती हूँ। 'जल भरने का कर लगना तो हमने कभी सुना नहीं। हम तो भरेंगी जल!' बालिका तेजस्विनी लगती है। छोटी-छोटी बालिकाएँ ही तो हैं सब। मैं मूर्खा मुग्ध देखती रह गयी। मुझे रोकना चाहिये था। अपनी स्वामिनी अथवा रोहिणी रानीजी को बुला सकती थी; किंतु इतनी सुन्दर भोली बालिकाओं का समूह देखकर मैं तो ठगी-सी रह गयी। 'यह बरसाने के स्वामी की लली'- 'परमात्मा मेरे नीलमणि से इसका सम्बन्ध हो जाय! यह संकोचमयी सुन्दरता की मूर्ति! नीलमणि के उपयुक्त यही है।' मैं अपनी ही अभिलाषा में नहीं समझ पायी कि मेरे नेत्र कब बन्द हो गये। चौकी तब तक तो नीलसुन्दर सखाओं के साथ इन सबसे उलझ पड़ा था। सबकी कलशियों का जल उन्हीं पर उलटने लगा था। लड़कियाँ अपनी कलशियाँ दुबकाती थीं; किंतु कितनी सुकुमार बालिकाएँ- ये सब उन्हें गुदगुदा कर, ठेलठाल कर कलशियाँ उनके ऊपर ही गिरा देते थे। |
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