नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
अब हमारी दृष्टि गयी। कक्ष का बहिर्द्वार भी खुला था। मध्य में पता नहीं ऊखल पहिले से उलटा था या आपने स्वयं उसे पलट दिया था। ऊँचे छीकों पर माखन रखने के लिए मैया ने भी उसे उलटाकर रखा हो सकता है। उसी पर खड़े थे ब्रजराजकुमार एक हाथ से छीका पकड़े। अब तक प्रभात का प्रकाश फैल चुका था। कपियों का एक पूरा समुदाय कक्ष के भीतर सम्मुख के खुले द्वार से आ गया था। उनमें-से जो समीप आकर दो पैर खड़ा होकर हाथ उठाता था, उसके हाथ पर उज्ज्वल माखन का लोंदा आ जाता था। कपि भी इतने अनुशासित होते हैं? क्यों न हों, जब उन्हें इस प्रकार भरपूर माखन मिलता हो। कोई धूम-धाम, उछल-कूद, छीना-झपटी, खा-खू नहीं। लोंदा लेकर एक ओर जाकर चुपचाप खाने लगते हैं। एक हाथ से छींका पकड़े, दूसरे दक्षिण कर से कपियों को उदारतापूर्वक माखन बाँटते ये दिगम्भर नीलसुन्दर चकित-चकित शंकित नेत्रों से द्वार की ओर भी देखते जाते हैं। मैया के आ जाने की आशंका तो है इन्हें; किंतु कपियों को पुरस्कृत भी तो करना है। बहुत श्रम किया है इन कीशों के पूर्वजों ने त्रेता में लंका की युद्ध-भूमि में इनके साथ। कपियों में हलचल पहिले हुई। वे माखन का लोंदा हाथ में उठाये द्वार से बाहर की ओर भागे और इन उलूखालारूढ़ की दृष्टि भी साटिका लिये आती मैया पर पड़ गयी। छींका छूट गया। माखन भरे दक्षिण कर कूदे ऊखल से और भागे। 'ठहर वान-बन्धु!' मैया भी दौड़ी और मुझे हँसी आ गयी। अब इनकी अलकें लहराती हैं, नूपुर किंकिणी, कंकण बजते हैं और अरुण चपल चरण दौड रहे हैं। दो क्षण हँसे खिल-खिलाकर; किंतु मैया की ओर मुड़कर देखते ही हास्य रुक गया। मैया दौड़ रही है। साटिका उठाये दौड़ रही है। ब्रजेश्वरी को भला कभी क्यों दौड़ना पड़ा होगा। केशपाश खुल गया है। वेणी में गुंथे पुष्प पृथ्वी पर पड़े रुदन से कर रहे हैं। मुख स्वेद विन्दुओं से भर गया है। कुण्डल हिल रहे हैं, हिल रहे हैं वात्सल्य भरित भारि पयोधर ओर नितम्ब! श्वास की गति बढ़ गयी है; किंतु ब्रजेश्वरी दौड़ रही हैं। |
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