नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
मुझे दया आती है और दया सिन्धु को दया नहीं आवेगी? मुड़कर मैया के मुख की ओर देखा-देखा श्रान्ता, स्वेद-स्नाता, हाँफती माता को और लो खड़े हो गये; किंतु यह क्या? जिनके भय से महाकाल भी काँपते हैं, वे मैया के भय से रुदन करने लगे? अत्यन्त कातर दृष्टि से साटिका की ओर देखते कितने आर्तस्वर में कहने लगे हैं- 'मैया! मुझे मार मत! मैं फिर ऐसा नहीं करूँगा।' 'चल भाग! और भाग तू!' मैया ने साटिका गिरा दिया हाथ से। परम वत्सला माता शिशु का इतना भीत मुख कैसे देख सकती थीं; किंतु अभी क्रोध से डाँट रही हैं- 'देखूँ तूँ भागकर कहाँ जाता है?' 'नहीं भागूँगा-अब नहीं भागूँगा।' ये वाम कर से अपने विशाल लोचन मल रहे हैं। रुदन कर रहे हैं। अञ्जन-कृष्ण अश्रु के बिन्दु ढुलका रहे हैं कपोलों पर। 'यहाँ आ! तू इस ऊखल पर खड़ा था न!' मैया तो इनका दक्षिण माखन-सना कर पकड़कर कक्ष में ले आयीं इनको। 'खड़ा हो इसके समीप! मैं इसी में तुझे आज बाँधूँगी।' 'मैया!' इतनी कातर दृष्टि, इतनी कातर वाणी; किंतु मैया देखती नहीं इनके मुख की ओर। वह सब सेविकाओं को डाँटती हैं- 'सब देखती क्या हो? रज्जु ले आओ!' यह आज्ञा-पालन मुझसे नहीं होगा, परंतु क्या सेविकाएँ कम हैं? रज्जु तो आ गयी। ये मैया से भयभीत ऊखल से सटकर सहमे खड़े हो गये हैं; किंतु मुझे आश्वासन प्राप्त हो गया। भगवती योगमाया आ गयी हैं, यह मानव दृष्टि से भले न दीखें, मुझ सुरांगना की दृष्टि तो दीख सकती है। अब ये सर्वेश्वरी उपस्थित हो गयीं हैं तो अपने स्वामी की कुछ तो सहायता करेंगी ही। योगमाया के अदृश्य करों का कौशल मैं स्पष्ट देख सकती हूँ। ब्रजेश्वरी की रज्जु ऊखल और अपने कुमार को लपेटने में दो अँगुल छोटी हो गयी है। मैया दूसरी रज्जु जोड़ती हैं- यह भी दो अँगुल छोटी, तीसरी जोड़ती हैं- दो अँगुल छोटी। |
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