ऐसा भक्त मैं कैसे बन सकता हूँ भगवन्?
तू मेरे में ही मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा। मेरे में ही मन-बुद्धि लगाने के बाद तू मेरे में ही निवास करेगा-इसमें संशय नहीं है। अगर इस तरह मन-बुद्धि को मेरे में स्थिर करने में तू असमर्थ है तो हे धनन्जय! तू अभ्यासयोग के द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा कर। अगर तू अभ्यासयोग में भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करने के परायण हो जा। मेरे लिये कर्म करने से भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जायगा। अगर तू मेरे लिये कर्म करने में भी असमर्थ है तो मन, बुद्धि को वश में रखते हुए सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर।।8-11।।
इस क्रम से तो कर्मों के फल का त्याग करना चौथे नम्बर का (निकृष्ट) साधन हुआ न भगवन्?
नहीं भैया, योग (समता) रहित अभ्यास से शास्त्रीय ज्ञान श्रेष्ठ है, योगरहित शास्त्रीय ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और योगरहित ध्यान से कर्मों के फल का त्याग करना श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।।12।।
भगवन्! उपर्युक्त चारों साधनों में से किसी एक साधन से आपको प्राप्त हुए सिद्ध भक्त के क्या लक्षण होते हैं अर्थात् उसमें कौन-कौन से गुण होते हैं?
उसका किसी भी प्राणी के साथ द्वेष नहीं होता। इतना ही नहीं, उसकी सम्पूर्ण प्राणियों के साथ मित्रता (प्रेम) और सबपर करुणा (दयालुता) रहती है। वह अहंता और ममता से रहित, क्षमाशील तथा सुख-दुःख की प्राप्ति में सम रहता है। वह हरेक परिस्थिति में निरन्तर सन्तुष्ट रहता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि उसके वश में रहते हैं। उसके मन-बुद्धि मेरे ही अर्पित रहते हैं। ऐसा वह दृढ़ निश्चयी भक्त मेरे को प्यारा है।।13-14।।
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