पर इस संसार का उत्पादक और आधार तो कोई होगा ही?
भैया! हूँ तो मैं ही; परन्तु मेरा स्वरूप सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला, सबको धारण करने वाला और उनका भरण-पोषण करने वाला होता हुआ भी उन प्राणियों में स्थित नहीं है, उनसे सर्वथा निर्लिप्त है- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को समझ।।4-5।।
तो फिर वे प्राणी आपमें किस प्रकार स्थित हैं?
जैसे सब जगह विचरने वाली महान् वायु निरन्तर आकाश में ही स्थित रहती है, ऐसे ही सब प्राणी मेरे में ही स्थित रहते हैं, ऐसा मान।।6।।
फिर तो वे प्राणी मुक्त हो जाते होंगे?
नहीं कुन्तीनन्दन, प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखने वाले वे प्राणी महाप्रलय में मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और महासर्ग के आरम्भ में फिर उनकी रचना कर देता हूँ।।7।।
आप उनकी रचना कब तक करते रहते हैं?
जब तक वे अपनी प्रकृति (स्वभाव) के परवश रहते हैं, तब तक मै। अपनी प्रकृति को वश में करके उनकी बार-बार रचना करता रहता हूँ।।8।।
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