जब आप उनकी बार-बार रचना करते हैं, तब आपका उनकी रचनारूप कर्मों के साथ सम्बन्ध रहता होगा भगवन्?
नहीं धनन्जय, मैं उन कर्मों में आसक्तिरहित तथा उदासीन की तरह सर्वथा निर्लिप्त रहता हूँ, इसलिये वे कर्म मुझे नहीं बाँधते।।9।।
तो फिर आप सृष्टि की रचना किस तरह से करते हैं?
वास्तव में तो प्रकृति ही मेरी अध्यक्षता में अर्थात् मेरे से सत्ता-स्फूर्ति पाकर सम्पूर्ण चर-अचर प्राणियों की रचना करती है। हे कौन्तेय! मेरी अध्यक्षता के कारण ही संसार में विविध परिवर्तन हो रहा है।।10।।
आपकी शक्ति से ही संसार में सब कुछ हो रहा है, फिर भी सब लोग आपपर श्रद्धा क्यों नहीं करते?
मूढ़लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वररूप परमभाव को न जानते हुए मुझे साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।।11।।
वे मूढ़लोग किस तरह कि होते हैं भगवन्!
वे मूढ़लोग आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेनेवाले होते हैं और उनकी सब आशाएँ, सब शुभकर्म तथा सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्-फल देनेवाले नहीं होते।।12।।
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