गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 105

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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उस ज्ञेय-तत्त्व का स्वरूप क्या है?
वह आदि-अन्त से रहित और परम ब्रह्म है। वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है।[1]।।12।।

तो भी वह कैसा है भगवन्?
वह सब जगह ही हाथों और पैरों वाला, सब जगह ही नेत्रों, सिरों और मुखों वाला तथा सब जगह ही कानों वाला है। वह सभी को व्याप्त करके स्थित है। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित है और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाला है। वह आसक्ति-रहित है और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाला है। वह गुणों से रहित है और गुणों का भोक्ता है।।13-14।।

एक ही तत्त्व में दो विरोधी लक्षण कैसे हुए?
अनेक विरोधी भाव उस एक में ही समा जाते हैं और विरोध उसमें रहता नहीं; क्योंकि स्थावर-जंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भी वही है और भीतर भी वहीं है तथा चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है अर्थात् उसके सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं। दूर-से-दूर भी वही है और जो नजदीक-से-नजदीक भी वही है।[2]।15।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153
  1. उस तत्त्व को सत्-असत् नहीं कह सकते। कारण कि असत् के भाव (सत्ता) के बिना ‘सत्’ शब्द का प्रयोग नहीं होता, जबकि असत् का अत्यन्त अभाव है। अतः उस परमात्मतत्त्व को ‘सत्’ भी नहीं कह सकते। उस परमात्मतत्त्व का कभी अभाव होता ही नहीं, इसलिये उसको ‘असत्’ भी नहीं कह सकते। तात्पर्य है कि उस तत्त्व में सत्-असत् शब्दों की अर्थात् वाणी की प्रवृत्ति होती ही नहीं। ऐसा वह निरपेक्ष परमात्मतत्त्व है
  2. दूर और नजदीक तीन प्रकार से होता है- देशकृत, कालकृत और वस्तुकृत। देश को लेकर-दूर-से-दूर देश में भी वही है और नजदीक-से-नजदीक देश में भी वही है। काल को लेकर पहले-से-पहले भी वही था, पीछे-से-पीछे भी वही रहेगा और अब भी वही है। वस्तु को लेकर-सम्पूर्ण वस्तुओं के पहले भी वही है, वस्तुओं के अन्त में भी वही है और वस्तुओं के रूप में भी वही है। इसलिये वह दूर-से-दूर और नजदीक-से-नजदीक है।
    यह श्लोक इस प्रकरण का सार है। इस श्लोक के विषय को ठीक तरह से जान लेने पर इसके भाव का मनन करने पर मनुष्य चाहे व्यवहार में रहे, चाहे एकान्त में रहे, इस भाव की जागृति उसमें स्वतः (बिना परिश्रम, उद्योग किये ही) रहेगी। वह अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरण का विषय नहीं है। इसलिये उसमें विरोध नहीं है।

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