गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
15. अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का सदा सम रहना। 16. संसार से उपरति और मेरे में अव्यभिचारिणी भक्ति का होना। 17. एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना। 18. जन-समुदाय में प्रीति का न होना। 19. परमात्मा की सत्ता का नित्य-निरन्तर मनन करना। 20. सब जगह परमात्मा को ही देखना। इन बीस साधनों से शरीर ‘यह’ रूप से दीखने लग जायगा। शरीर को ‘यह’ रूप से (अपने से अलग) देखना ज्ञान है और इसके विपरीत शरीर को अपना स्वरूप देखना अज्ञान है।।7-11।। इस ज्ञान से प्राप्त होने वाला तत्त्व क्या है? |