नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. ब्रह्मर्षि वशिष्ठ-वत्सोद्धार
एक-केवल एक उपाय और है, और वह है किसी श्रीहरि के निज जन का सान्निध्य प्राप्त हो जाय। यह भगवद्भक्त, सन्त का सान्निध्य-सामीप्य किसे प्राप्त हुआ, कैसे प्राप्त हुआ, यह प्रश्न नहीं है। अग्नि में कोई काष्ठ पड़े, सम्मानपूर्वक आहुति बनकर- समिधा के रूप में पड़े अथवा तिरस्कारपूर्वक अग्नि को ताड़ित करने के लिए निक्षिप्त किया जाय, काष्ठ को अग्नि आत्मस्वरूप देगा ही। श्रीहरि के जो अपने हो गये हैं वे तो उनसे अभिन्न हैं। उनके मिलन का अर्थ ही है कि स्वयं श्रीहरि प्राप्त हो गये। अब वे मिलेंगे ही। असुरों को यही साधन सरल लगता है। जीव अपने स्वभाव से विवश है। राजस-तामस स्वभाव पाकर साधना सम्भव नहीं हो पाती। असुरों को अपराध नहीं है, वे अपनी प्रकृति के परवश श्रुति, सुर, साधु के विरोधी बन जाते हैं। यह द्वेष जहाँ उन्हें दुष्टता की ओर, पर-पीड़न की ओर प्रवृत्त करता है, प्राय: उनके उद्धार का उपाय भी बन जाता है। इसी प्रवृत्ति के कारण वे महात्माओं का अपराध करके शाप-भाजन बनते हैं और सत्पुरुष शाप देकर प्रसन्न तो नहीं हो सकते। आवेश में किसी के कष्ट का कारण स्वयं बन जाने पर उसके समुद्धार की चिन्ता स्वत: उत्पन्न हो जाती है और किसी हरि-भक्त की चिन्ता तो श्रीहरि की अपनी चिन्ता है। मुझमें ही क्या था? मैंने क्रोध-वश शाप दिया था निमि को। उन्होंने मेरी प्रतीक्षा न करके अन्य पुरोहित वरण कर लिया अपने यज्ञ में। लोभ ने मेरा विवेक नष्ट कर दिया था। मैंने निमि को मरण का शाप दिया तो निमि ने वही शाप मुझे देकर कुछ अनुचित नहीं किया। मैं शाप का पात्र था। आयु का जब ठिकाना नहीं, पुण्य-संकल्प को कल पर नहीं टालना चाहिये, यह निमि का तर्क निर्दोष था। अन्य पुरोहित के वरण में उनका विवेक था, मेरे अपमान की आकांक्षा नहीं थी। |
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