नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. ग्रामदेव-अक्रूर आये
‘मैं आप सबके आगे नहीं जाऊँगा!’ अक्रूर ने आश्वासन दिया-‘यमुना किनारे आपके व्रज की सीमापर मध्याह्न स्नान-सन्ध्या करूँगा मैं।’ ‘हम तुझसे पहिले पहुँचेंगे।’ सखाओं ने सोल्लास कहा श्यामसुन्दर से और छकड़ों पर बैठ गये। बालकों को, उपहारादि को लेकर गोपों के छकड़े प्रथम चल पड़े। व्रज में ग्यारह वर्ष, छः महीने, पाँच दिन रहकर श्रीकृष्णचन्द्र ने अग्रज के साथ फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को अमृत योग में, जबकि लग्नेश बुध था, मंगलकृत्य करके मथुरा-प्रस्थान किया। मैया यशोदा ने वामपर्श्र्व में चन्दन चर्चित सपल्लव जलपूर्ण कलश रखा था और दाहिने निर्धूम अग्नि प्रज्वलित थी। साध्वी सपुत्रा स्त्रियाँ दर्पण लिये सम्मुख खड़ी थीं। महर्षि शाण्डिल्य ने स्वस्तिवाचनपूर्वक दूर्वा, श्वेतपुष्प, अक्षत हाथ में दिया। व्रजराजकुमार ने उसे मस्तक पर रखा। घृत, मधु, रतज, स्वर्ण, दधि, सवत्सा श्वेत गौका दर्शन कराया गया उन्हें। श्री नन्दनन्दन ने गुरुजनों को, ब्राह्मणों को प्रणाम किया। शंखध्वनि, सस्वर वेदपाठ, मंगलगान के मध्य उन्होंने पहिले दाहिना पद उठाया। वामनासा से वायु खींचकर वह छिद्र करसे दबाकर नासिका से छोड़ा। तब प्रागंण में पहुँचे। द्वारा आम्रपल्लवों की बन्दनवार से सजा था। सफल कदली-स्तम्भ लगे थे। मैया ने वाम भाग से दाहिने आकर हृदय से लगाया और तब अग्रज के साथ आकर रथ पर बैठे। बालिकाएँ उन्मादिनी हो उठी थीं। वे अश्वों से, रथचक्र से लिपट पड़ी थीं। श्यामसुन्दर ने बड़े स्नेह से उन्हें समझाया-‘मैं तुमसे पृथक रह नहीं सकता। तुम अपनी अमल प्रीति पर विश्वास करों। मैं सदा तुम्हारे समीप रहूँगा। मथुरा से शीघ्र समचार देकर दूत भेजूँगा। बालिकाओं की व्यथा मैं कैसे कहूँ। मैं अपनी ही व्यथा से विक्षिप्त हो रहा था। वे सब मूर्छित हो गयीं। सब पुनः दौडीं रथ के पीछें और गिर पड़ीं भूमि मे। जबतक रथ दीखता रहा, रथ की ध्वजा दीखती रही, रथ से उड़ती धूलि दीखती रही, वे उधर ही अपलक देखती मूर्तियों की भाँति खड़ी रहीं। जब धूलि भी दीखना बन्द हुआ, एक साथ सब गिरीं-‘हाय! वे चले गये।’ धूरि धूसरिता वृन्तच्युता पद्मिनियों के समान म्लानवदना, मूर्छिताप्राय इन बालिकाओं को इनकी माताएँ किसी प्रकार अंक में उठाकर गृहों को लौट रही हैं। उनको आश्वासन देना है। इनको किसी प्रकार सचेत करना है। नन्दगग्राम का अधिदेवता होकर मुझे यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी देखना पड़ा। ऐसा दिन जिसके दुःख, पीड़ा व्यथा का वर्णन सम्भव नहीं। व्रज में आज पशुओं, पक्षियों, पिपिलिका तकने आहार या जल मुख में नहीं लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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