बंटी कुमार (वार्ता | योगदान) |
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">''' | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''87. महाभानु बाबा-कुरुक्षेत्र से लौटे'''</div> |
− | + | इन भोली लड़कियों को कौन समझावे कि जीवन वैसा सरल नहीं है जैसा युवावस्था के आवेश में समझ लिया जाता है। युवावस्था की भावनायें चाहे जितनी भव्य हों, जीवन को तो व्यवहार की कठोर शिला पर अपने पद स्थापित करके खड़ा होना है। अतः युवावस्था के अनेक स्वप्नों को भंग होना ही पड़ता है। जीवन को परिस्थिति से पाला पड़ना है, उसे समझौता करके चलने वाला ही सुखी बना सकता है। | |
− | + | [[कृष्ण|श्यामसुन्दर]] क्या करता? [[कंस]] मारा गया और उसका [[श्वसुर]] [[जरासंध|मगधराज]] [[मथुरा]] का शत्रु हो गया। [[द्वारिका]] के दुर्गम दुर्ग की शरण अनिवार्य हो गयी। [[जरासंध]] के सभी [[मित्र]] अब यादवों के शत्रु हैं। अपने सम्बन्धी, सहायक बढ़ाने के लिये राज्य के रक्षक के अनेक [[विवाह]] करने ही पड़ते हैं। [[कृष्ण|कृष्णचन्द्र]] की विवशता उनकी बुद्धिमात्ता है। इसकी प्रशंसा करनी पड़ेगी। | |
− | + | वे इन सुकुमारियों को जब द्वारिका ले जा रहे थे, पृथक नगर बनवाने को उद्यत थे, विवाह करने प्रमुख महिषी घोषित करने को उद्यत थे तो इन्हें चले जाना था। [[नंद|नन्दराय]] इनको कुछ कह नहीं सकते थे और इन सबकी तो बुद्धि भी बच्चियों की है। | |
− | + | सुबल कहता है कि- '[[बहिन]] को नगर के राजसदन की परतन्त्रता पीड़ादायिनी लगती है। वन के कुञ्जों की क्रीड़ा वे भूल नहीं पातीं। उनके साथ [[कृष्ण|वनमाली]] को [[वृन्दावन]] में रहना चाहिए।' | |
− | + | इस हठ की भी कोई सीमा है। अब अपने आश्रितों को अनाथ करके, सब ओर अवसर देखते शत्रुओं की कृपा पर छोड़कर [[कृष्ण]] यहाँ आकर कैसे रह सकते हैं? | |
− | + | लाली [[राधा]] पगली है। सदा से बहुत भोली। अपनों से दूर रहने की भावना से ही डरती है। अब ये सब दुःखी रहेंगी- उन्मादिनी बनी रहेंगी और इनका दुःख हमें जीवनभर व्याकुल रखेगा, यही हमारी नियति है? | |
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14:06, 19 मार्च 2016 का अवतरण
नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. महाभानु बाबा-कुरुक्षेत्र से लौटे
श्यामसुन्दर क्या करता? कंस मारा गया और उसका श्वसुर मगधराज मथुरा का शत्रु हो गया। द्वारिका के दुर्गम दुर्ग की शरण अनिवार्य हो गयी। जरासंध के सभी मित्र अब यादवों के शत्रु हैं। अपने सम्बन्धी, सहायक बढ़ाने के लिये राज्य के रक्षक के अनेक विवाह करने ही पड़ते हैं। कृष्णचन्द्र की विवशता उनकी बुद्धिमात्ता है। इसकी प्रशंसा करनी पड़ेगी। वे इन सुकुमारियों को जब द्वारिका ले जा रहे थे, पृथक नगर बनवाने को उद्यत थे, विवाह करने प्रमुख महिषी घोषित करने को उद्यत थे तो इन्हें चले जाना था। नन्दराय इनको कुछ कह नहीं सकते थे और इन सबकी तो बुद्धि भी बच्चियों की है। सुबल कहता है कि- 'बहिन को नगर के राजसदन की परतन्त्रता पीड़ादायिनी लगती है। वन के कुञ्जों की क्रीड़ा वे भूल नहीं पातीं। उनके साथ वनमाली को वृन्दावन में रहना चाहिए।' इस हठ की भी कोई सीमा है। अब अपने आश्रितों को अनाथ करके, सब ओर अवसर देखते शत्रुओं की कृपा पर छोड़कर कृष्ण यहाँ आकर कैसे रह सकते हैं? लाली राधा पगली है। सदा से बहुत भोली। अपनों से दूर रहने की भावना से ही डरती है। अब ये सब दुःखी रहेंगी- उन्मादिनी बनी रहेंगी और इनका दुःख हमें जीवनभर व्याकुल रखेगा, यही हमारी नियति है? |
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