महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अभिमन्यु का विवाह
महाराज द्रुपद ने सब तरह से सोच विचार कर अपनी चालें चलीं। उन्होंने अर्जुन से कहा कि यों तो श्रीकृष्ण आदि यादवगण हमारे साथ हैं पर तुम्हें स्वयं जाकर उनकी सहायता मांगनी चाहिए। अर्जुन उनकी बात मानकर द्वारका की ओर चल दिये। जब पाण्डवों की ओर से यह राजनीतिक चालें चलीं जा रही थीं, तब दुर्योधन भी चुप नहीं बैठा था। उसने भी दूर-दूर के राजे-महाराजों के पास सहायता पाने के लिए अपने भाइयों और चतुर मंत्रियों को भेजना आरम्भ किया। उन दिनों आर्य और शक राजा-महाराजों की सीमा आज के भारतवर्ष के नक्शे से कहीं दूर ठेठ ईरान, ईराक, तुर्किस्तान, आजरबैजान, आदि देशों तक फैली हुई थी। बगदाद शहर उन दिनों भगदात या भगदत्त कहलाता था। अफ़ग़ानिस्तान की आधुनिक स्वात नदी के आस-पास फैला हुआ सुवास्तु देश कहलाता था। आधुनिक कम्बोह पुराना काम्बोज था। आधुनिक बल्ख पुराना बाल्हीक देश, सीस्तान यानी पुराना शकस्थान आदि मध्य एशिया का बहुत बड़ा क्षेत्र व्यावसायिक और धार्मिक रूप से हमारे साथ ही जुड़ा हुआ था। आधुनिक कन्दहार पुराना गान्धार अर्थात् दुर्योधन के नाना का देश था। इसलिए दुर्योधन ने गान्धार, वाल्हीक, शकस्थान, सुवास्तु, भगदत्त और यवन द्वीप आदि के राजा-महाराजों के पास अपने दूत भेजे। वे उनके लिए बड़ी मूल्यवान भेंट भी अपने साथ ले गये। कौरव और पाण्डव दूर-दूर के राजे-महाराजों को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए जी-जान से दौड़-धूप करने लगे। दोनों ओर के चतुर जासूस इस बात की टोह में लगे थे कि कौन किसकी सहायता लेने जा रहा है। दुर्योधन को जब यह पता चला कि अर्जुन द्वारका जा रहे हैं तो वह भी चटपट तेज घोड़े पर सवार होकर द्वारका के लिए चल दिया। दोनों ही लगभग साथ-साथ वहाँ पहुँचे। बल्कि सच तो यह है कि दुर्योधन अर्जुन से कुछ पहले द्वारका पहुँच गया। श्रीकृष्ण को भी अपने जासूसों से दोनों के आने की बात पहले ही मालूम हो गई थी। जब उन्होंने सुना कि दुर्योधन पहले पहुँच रहा है तो उन्होंने चट से अपनी नीति विचार ली। दोपहर का समय था, वे सोने चले गये। नौकरों से कहा कि दुर्योधन अगर आते ही उनसे मिलने का हठ करें तो मेरे कमरे में ले आना और मेरे सिरहाने के पास कुर्सी रखकर उन्हें बैठा देना। नौकरों ने ऐसा ही किया। दुर्योधन सिरहाने के पास बैठ गये और श्रीकृष्ण जी के जागने की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में ही अर्जुन भी वहाँ पहुँच गये। नौकर लोग जब तक उनके लिए कुर्सी लायें तब तक वह श्रीकृष्ण के पलंग पर पैताने की ओर चुपके से बैठ गये। श्रीकृष्ण ने अपना राजनीतिक नाटक पूरा करके अब आंखें खोलीं। पहले अर्जुन ही दिखाई दिये। श्रीकृष्ण मुस्कराकर बोले- "कहो भाई कैसे आये?" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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