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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
विराट नगर में पाण्डव
कीचक के साथियों का वध सुनकर राजा और प्रजा सबके कलेजे दहल उठे। अब द्रौपदी सबके लिए भय की वस्तु बन गई। हर आदमी उसके गन्धर्व पतियों से घबराने लगा। इस तरह अज्ञातवास के ग्यारह महीने बीत गये। राजा विराट के साले कीचक और उसके बलवान साथियों की हत्या का समाचार बड़े चमत्कारिक वर्णनों के साथ चारों तरफ फैल गया। त्रिगर्त के राजा सुशर्मा ने कीचक-वध का समाचार पाकर राजा विराट से अपने पुराने बैर का बदला लेने का निश्चय किया। राजा सुशर्मा दुर्योधन के पास आया। उसने दुर्योधन से कहा- "महाराज! आप तो जानते हैं कि अपने प्रतापी सेनापति कीचक के बूते पर मत्स्य नरेश विराट ने मुझे कई बार हराया था। अब मैं अपनी पुरानी पराजयों का बदला लेना चाहता हूँ। मैं आपका निष्कपट मित्र और शरणागत रहा हूँ। कौरवगण यदि इस समय मेरी मदद कर दें तो मैं विराट से अपने अपमानों का बदला चुका लूंगा। विराट को हराकर उसके खजाने को हम लोग लूट लेंगे। आपकी धन-सम्पदा बढ़ जायगी और मैं बदला लेकर शांति पा जाऊंगा।" जिस समय यह बातें हो रही थी, उस समय कर्ण और दुःशासन भी वहीं बैठे हुये थे। राजा सुशर्मा की बात सुनकर कर्ण ने कहा- "मित्र सुयोधन! त्रिगर्त नरेश की बात मुझे भाती है। पाण्डवों के न मिलने के कारण हम यह नहीं जानते कि उन्होंने हमसे बदला लेने के लिए अब तक कौन-कौन से साधन जुटा लिए हैं। जो हो, पर यह निश्चित है कि पाण्डव हमसे लड़ने की पूरी तैयारी कर रहे होंगे। इसलिए हमें भी अपनी शक्ति को संगठित करना चाहिए। हमारा राजकोष भी समृद्ध होना चाहिए जिससे कि हम आवश्यकता पड़ने पर बहुत दिनों तक युद्ध लड़ सकें। मैं समझता हूँ कि भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और महाराज से इस सम्बन्ध में राय लेना उचित होगा।" कर्ण की सलाह को पसन्द करके दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन को भीष्म आदि गुरुजनों की आज्ञा लेने के लिए भेजा। उन्हें आज्ञा मिल भी गयी। दुर्योधन ने अपनी सेना संगठित की और त्रिगर्त नरेश सुशर्मा से कहा कि कृष्ण पक्ष की सप्तमी को तुम पूर्व दक्षिण दिशा कोणों से विराट के राज्य में प्रवेश करो। अष्टमी के दिन हम लोग भी वहाँ पहुँच जायेंगे।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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