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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
विराट नगर में पाण्डव
कीचक ने अकेले में सैरन्ध्री को घेरा और उसे बड़ी-बड़ी लालच दीं। सैरन्ध्री बोली- "हे सेनापति! मैं पराई स्त्री हूं, मुझसे ऐसी बात मत कीजिए। मेरे पति महाबली गन्धर्व हैं, वे सदा छिपकर मेरी रक्षा किया करते हैं, अगर वे आपकी यह नीति सुन लेंगे तो आपका अमंगल होगा।" लेकिन कीचक न माना। द्रौपदी किसी तरह उसे चकमा देकर भाग आई। क्रोध में आकर कीचक ने तुरन्त अपनी बहन को कहलाया कि अपनी सैरन्ध्री को तुरन्त मेरी सेवा में भेजे, नहीं तो मैं इस राज्य को मिट्टी में मिला दूंगा। रानी बेचारी डर गई। उसने द्रौपदी को कीचक के पास मदिरा की सुराही लेकर जाने की आज्ञा दी। द्रौपदी बेचारी बहुत घबरा गई। उसने रानी की बड़ी-बड़ी चुरौरियां की परन्तु रानी ने हुकूमत जताकर उससे कहा- "तुम्हें जाना ही पड़ेगा।" द्रौपदी बेचारी क्या करती। वह कीचक के महल में मदिरा पात्र पहुँचाने के लिए गई। कीचक उसे देखकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ, परन्तु जैसे ही वह उसे पकड़ने के लिए लपका वैसे ही वह वहाँ से भागी। द्रौपदी ने सोचा, मैं यदि राजा विराट की सभा में पहुँचकर शरण मागूंगी तो वह मुझे इस संकट से उबार लेंगे। द्रौपदी राजा के कक्ष में भाग कर जा पहुँची। क्रोध के मारे कीचक भी उसके पीछे-पीछे राजा के कमरे में जा पहुँचा और द्रौपदी के झोंटे पकड़ कर उसे सभा में ही गिरा दिया तथा एक लात मारी। इस समय राजा के पास युधिष्ठिर भी बैठे हुए थे। उनकी आंखों में खून उतर आया, परन्तु उन्होंने बड़े ही संयम से काम लिया। बेचारी द्रौपदी रो-रोकर राजा से रक्षा मांगने लगी। राजा बेचारा खुद कीचक से डरता था, वह क्या बोलता लेकिन राजा के पास बैठे हुए दूसरे लोगों ने कहा कि वह स्त्री दासी होकर भी कोई शाप भ्रष्टा देवी-सी मालूम पड़ती है, कीचक को इसके साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए था। युधिष्ठिर ने बहुत समझदारी से काम लेकर इस तरह से समझाया कि राजा विराट भी यह कह उठे कि मैं सोच समझकर इस बात का फैसला करूंगा, तुम इस समय महल में जाओ। उन्होंने कीचक से कहा- "कीचक, इस समय तुम भी जाओ और अपने को शांत करो। मैं न तुम्हारे साथ अन्याय करूंगा और न सैरन्ध्री के साथ।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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