विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
सप्तम प्रकरण
जरासन्ध और शिशुपालादिका वध
कारागृहमुक्त राजा तथा युधिष्ठिरकृत स्तुति
तदनन्तर भगवान, भीम और अर्जुन हस्तिनापुर को लौट आये। वहाँ का सब वृत्तान्त महाराज युधिष्ठिर से कह दिया। अब युधिष्ठिर ने यज्ञ की तैयारी की और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणों को होता है, अध्वर्यु आदि ऋत्विजों के रूप में वरण किया। तदनन्तर यह प्रश्न छिड़ा कि सभापति कौन हो? सहदेव ने प्रस्ताव किया कि भगवान श्रीकृष्ण के सामने अन्य व्यक्ति सभापति के आसन पर बैठने योग्य नहीं है। क्योंकि ये सर्वदेव रूप और देशकालधनादि रूप हैं। यह विश्व और यज्ञ उनके रूप हैं। अग्नि, आहुति और मंत्र उनके ही आराधना के साधन हैं; ज्ञान और उपासना से उनका ही प्रतिपादन होता है। वे सृष्टि के पहिले सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से रहित थे। हे सभासदों! यह दृश्यमान जगत उनका ही स्वरूप है, क्योंकि ये दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रख स्वयं जन्म रहित होकर अपने ही द्वारा इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण हैं। सब लोग इन्हीं के अनुग्रह से तप, योग आदि नाना प्रकार के सत्कर्म करके धर्मादि पुरुषार्थ को सिद्ध करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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