विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
द्वितीय प्रकरण
श्रीकृष्ण जी के विवाह[1]
जाम्बवान्[2] तथा भूमिदेवीकृत स्तुतियाँ
जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10।55 से 59 तक
- ↑ भा. 10।56 में जाम्बवान् की हुई स्तुति का अर्थ।
मैं जानता हूँ कि सब भूतों का जो प्राणबल, इन्द्रियशक्ति, अंतःकरण शक्ति और शरीरसामर्थ्य है, वह सब तुम्हीं हो, तुम ही विष्णु, पुराणपुरुष (निमित्तकारण), प्रभविष्णु (उपादानकारण) और अधीश्वर (सबके नियन्ता) तथा संहारकर्ता हो।।26।।
तुम ही ब्रह्मादि के निमित्त और महदादि रचने योग्य पदार्थों के परमार्थभूत उपादान कारण हो। यद्यपि तुम तुम असंग हो तथापि नाश करने वालों के नियन्ता काल और सदल जीवों के उपादान हो॥27॥
जिनके किच्ञित् क्रोधयुक्त कटाक्षमात्र से उस समुद्र ने मार्ग दिया जिसमें के बड़े-बड़े मत्सय खलबला उठे थे, जिन्होंने समुद्रपर पुल बँधवाकर अपना यश स्थापित किया, लंका भस्म कर डाली और जिनके बाणों से कटकर रावणादि के सिर भूमिपर गिरे व मेरे स्वामी श्रीरघुनाथ जी तुम्ही हो, इस कारण मेरा अपराध क्षमा करो।।28॥
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