भागवत स्तुति संग्रह पृ. 348

भागवत स्तुति संग्रह

चौथा अध्याय

द्वारकालीला
पंचम प्रकरण
पौण्ड्रक और राजा
नृग का उद्धार[1]

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नृगकृत स्तुति

 
स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा
योगेश्वरैः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः।
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः।
स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः।।[2]

जिस समय भगवान द्वारका में विराजमान थे, उस समय करूषदेशाधिपति राजा पौण्ड्रक ने दो कृत्रिम भुजाएँ तथा शंख-चक्रादि आयुध धारण कर यह घोषित कर दिया कि मैं ही वासुदेव हूँ, अतः सबकै मेरी ही उपासना करनी चाहिए। उसने भगवान के पास भी अपना दूत भेजा और कहलाया कि वे अपना झूठा वासुदेव नाम त्याग दें नहीं तो मेरे साथ युद्ध करें। यह सुनकर भगवान हंसे और दूत को विदाकर युद्ध के लिए चल दिये। इस समय पौण्ड्रक का मित्र काशीपति भी तीन अक्षौहिणी सेना के साथ पौण्ड्रक की सहायता के लिए आया। भगवान ने समर में सब सेना के साथ पौण्ड्रक और काशिराज को भी मार डाला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भा. 10।64 से 66 तक।
  2. अर्थ इसी प्रकरण के श्लोक 26 की टीका में देखिये।

    नोट- भा.स्क. 10 अ. 65, 67, 68, 78, 79 में श्रीबलदेव जी का चरित्र आता है, वह इस ग्रंथ का विषय नहीं है, इस कारण यहाँ सूक्ष्म प्रकार से लिखा जाता है।

    जब भगवान् द्वारका में राजा नृग प्रभृति का उद्धार कर रहे थे, उस समय बलराम जी गोकुल में गये हुए थे। वहाँ उसने यमुना जी का मार्ग अपने हल में बदल दिया। इसके पश्चात् उन्होंने रैव तक पर्वत पर क्रीड़ा करते समय द्विविदनामक एक दुष्ट वानर का वध किया। एक समय श्रीकृष्णचंद्र के पुत्र साम्ब ने स्वयंवर में से दुर्योधन की लक्ष्मणा नाम की कन्या का हरण किया और कौरवों ने साम्ब को बाँध लिया। इस समाचार को सुनकर बलराम जी हस्तिनापुर गये और जब कौरवों ने उनकी बात न मानी तब वे अपने हल से हस्तिनापुर को गंगा में उलट देने के लिए तत्पर हुए। जिस समय उन्होंने हल चलाया और उस समय वह पुर जल में गिरना ही चाहता था कि कौरवों ने लक्ष्मणा सहित साम्ब को बलरामजी को सम्मुख उपस्थित कर दिया। इससे उनका क्रोध शान्त हो गया। फिर दुर्योधन ने बहुत कुछ दहेज देकर लक्ष्मणा को साम्ब के साथ विदा कर दिया। अब भी हस्तिनापुर दक्षिण की ओर ऊँचा और गंगा जी की ओर झुका हुआ सा दिखायी देता है। एक बार बलराम जी तीर्थयात्रा करते नैमिषारण्य में पहुँचे, वहाँ उन्हें देखकर शौनकादि सभी ऋषियों ने अभ्युत्थान किया किन्तु व्यास गद्दी का मान रखने के लिए लिए सूत जी नहीं उठे। इस पर कुपित होकर बलराम जी ने उनका वध कर दिया। इससे बलराम जी को ब्रह्महत्य का पाप हुआ। अतः उसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने एक वर्षपर्यन्त भारतवर्ष का तीर्थों की संपूर्ण परिक्रमा की और कृच्छ्रव्रत किया। तदनन्तर उन्होंने बल्वलनामक दानव का वध किया।

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प्रकरण पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
उपोद्घात
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चतुर्थ- कुमारावस्था लीला 6. ब्रह्मा कृत स्तुति 46
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दूसरा अध्याय
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चौथा अध्याय
प्रथम- द्वारका लीला 22.रुक्मिणी का पत्र 299
द्वितीय- श्रीकृष्ण जी के विवाह 23. भूमि कृत स्तुति 310
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पंचम- पौण्ड्रक और राजा नृग का उद्धार 27. नृग कृत स्तुति 348
षष्ठ- भगवान का गार्हस्थ्य जीवन 28. बन्दी राजाओं का प्रार्थना पत्र 354
सप्तम- जरासन्ध और शिशुपालादि का वध 29. कारागृह मुक्त राजाओं द्वारा की गयी स्तुति 362
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32. वसुदेव कृत स्तुति 392
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