विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
एकादश प्रकरण
भगवान का इन्द्रप्रस्थ से जाना[1]
द्वारकावासी[2] तथा इन्द्रप्रस्थ की स्त्रियों द्वारा की हुई स्तुति
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. स्क. 1 अ. 10-11
- ↑ भा. स्क. 1 अ. 11 के अंतर्गत द्वारकावासियों द्वारा कृत स्तुति का अर्थ।
हे नाथ! जो ब्रह्मा, सनकादि और इन्द्रादि सकल देवताओं से वन्दित हैं, जो इस संसार में परम क्षेम की इच्छा करने वालों का उत्तम आश्रय हैं और जहाँ सबके नाशक काल का भी सामर्थ्य नहीं चल सकता ऐसे आपके चरणकमलों में हम अपना मस्तक नवाते हैं।।6।।
हे विश्वभावन! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होइये, आप हमारे माता, मित्र, रक्षक, पिता, श्रेष्ठ गुरु और परम देवता हैं, आपकी सेवा से हम कृतार्थ हैं।।7।।
आपकी उपस्थिति से हम आज सनाथ हो गये हैं क्योंकि देवताओं को भी जिसका दर्शन दुर्लभ है ऐसे प्रेमसहित मन्द हास्य कृपाकटाक्षयुक्त मुखकमल तथा संपूर्ण अंगों की अनुपम सुंदरता से शोभायमान आपके स्वरूप हम दर्शन कर रहे हैं।।8।।
हे अम्बुजाक्ष! हे अच्युत! आप अपने सुहृदों को देखने के लिए हमको छोड़कर जब हस्तिनापुर अथवा व्रज को जाते हैं तब जैसे सूर्य के बिना नेत्रों की भाँति आपके बिना हमारा एक क्षण भी कोटि संवत्सर के तुल्य प्रतीत होता है, एक क्षण भी करोड़ वर्षों के समान जान पड़ता है। भाव यह है कि जैसे सूर्य के बिना आँख में अंधकार हो जाता है वैसे ही आपके बिना हम भी अंधे हो जाते हैं।।9।।
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