विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
षष्ठ प्रकरण
भगवान् का गार्हस्थ्य जीवन[1]
नारदकृत[2] स्तुति तथा बन्दी राजाओं का प्रार्थना पत्र
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10।69 से 71 तक
- ↑ भा. 10।69 के अंतर्गत नारदकृत स्तुति का अर्थ-
हे विभो! हे अखिललोकनाथ! जो आप सकल साधुओं में मित्रभाव रखते हैं और दुष्टों को दण्ड देते हैं, आपमें यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि जगत् की उत्पत्ति और रक्षा के लिए और धर्मादि पुरुषार्थ का फल देने के लिए आपका अवतार अपनी इच्छा के अनुसार हुआ है। (भाव यह है कि साधु की रक्षा और खलों को दण्ड देना युक्त ही है)।।17।।
मैं भक्तों को मोक्षदायक, अति दुर्लभ होने से ब्रह्मादि योगेश्वरों से केवल हृदयगम्य और संसार कूप में निमग्न पुरुषों के उतरने के अवलम्बन रूप आपके चरणों के दर्शन पाकर कृतकृत्य हो गया हूँ, अब जैसे आपकी स्तुति बनी रहे वैसा अनुग्रह कीजिए जिससे सदा आपका ध्यान करता हुआ मैं विचरूँ।।18।।
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