भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस समय भगवान की उदासीनता देखकर मानो महाराज परीक्षित मन-ही-मन उनकी निन्दा कर रहे थे, इतने ही में श्री शुकदेवजी कहने लगे “भगवानपि ता रात्रीः’ अर्थात व्रजांगनाएँ तो पहले ही से अभिलाषा रखती थीं, परन्तु आज भगवान ने भी उनके साथ तादात्म्यापत्तिरूप रमण की इच्छा की। इससे यह भी सूचित होता है कि भगवान की इच्छा भक्तों की भावना का अनुसरण किया करती है। कहा भी है-
भावुक लोग अपनी-अपनी भावनामयी बुद्धि से अरूप, अनाम, अप्रमेय परब्रह्म का जिस-जिस रूप से ध्यान करते हैं वैसा ही रूप भगवान को धारण करना पड़ता है। इसी से यद्यपि अभी तक भगवान को रमण की इच्छा नहीं थी, तथापि गोपांगनाओं की भावना के अधीन होने से उनमें भी रमणेच्छा का प्रादुर्भाव हो गया। किन्तु इन व्रजांगनाओं को भाव ‘तत्सुखसुखित्व’ है। इन्हें अपने सुख की कुछ भी इच्छा नहीं है। संसार में तो अपने सुख की कामना से ही सबसे प्रीति की जाती है- ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवति’। तथापि गोपांगनाओं का प्रेम तो लोक तथा वेद से अतीत ही है। अतः उन्हें अपने लिये भगवान में प्रेम नहीं था, बल्कि वे तो भगवान के ही लिये प्राण धारण करती थीं। उनका तो यही लक्ष्य था कि हे मनमोहन! ये प्राण और देह आपके काम आते हैं इसी से हम इन्हें धारण करती हैं, नहीं तो हमें इनकी क्या आवश्यकता है? भगवान का वियोग होने पर भी उन्होंने इसीलिये अपने शरीरादि को रख छोड़ा था कि वे भगवत्सेवा के साधन थे। उनका कहना था कि श्रीकृष्ण से वियुक्त होकर भी जो हम जीवित हैं इसका मुख्य कारण यही है कि हमारे प्राण हमारे अधीन नहीं है। विधाता ने शरीर तो हमें दिया है; किन्तु प्राण श्रीकृष्ण के अधीन कर दिये हैं। उनका कथन था- ‘भवदायुषां नः’ अर्थात आप ही हमारी आयु हैं। अतः उनका जीवन भगवान के सुख के लिये ही था। हाँ, उन्हें सुख पहुँचाने में उनको भी सुख मिलता ही था। जो पुरुष भगवान को सुगन्धित माला और पुष्प समर्पण करता है उसे भी सान्निध्यवश उनका सुवास मिलता ही है। किन्तु यह सुखानुभव आनुषंगिक है, उसमें अपना सुख अभिमत नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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